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भट्टाकलंकदेवको कथा पढ़कर उसका चित्त क्षुभित हो उठा । आखिर उसे शास्त्रार्थके लिये तैयार होना ही पड़ा।
अकलंकके आनेके समाचार महाराज हिमशीतलके पास पहुंचे। उन्होंने उसी समय बड़े आदर सम्मानके साथ उन्हें राजसभामें बुलवाकर संघश्रीके साथ उनका शास्त्रार्थ करवाया। संघश्री उनके साथ शास्त्रार्थ करनेको तो तैयार हो गया, पर जब उसने अकलंकके प्रश्नोत्तर करनेका पाण्डित्य देखा और उससे अपनी शक्तिकी तुलना की तब उसे ज्ञात हुआ कि मैं अकलंकके साथ शास्त्रार्थ करनेमें अशक्त हूँ, पर राजसभामें ऐसा कहना भी उसने उचित न समझा। क्योंकि उससे उसका अपमान होता। तब उसने एक नई युक्ति सोचकर राजासे कहा-महाराज, यह धार्मिक विषय है, इसका निकाल होना कठिन है। इसलिये मेरी इच्छा है कि यह शास्त्रार्थ सिलसिलेवार तबतक चलना चाहिये जब तक कि एक पक्ष पूर्ण निरुत्तर न हो जाय । राजाने अकलंककी अनुमति लेकर संघश्रीके कथनको मान लिया । उस दिनका शास्त्रार्थ बन्द हुआ। राजसभा भंग हुई। ____ अपने स्थानपर आकर संघश्रीने जहाँ-जहाँ बौद्धधर्मके विद्वान् रहते थे, उनके बुलवानेको अपने शिष्योंको दौड़ाया और आपने रात्रिके समय अपने धर्मकी अधिष्ठात्री देवीकी आराधना की। देवी उपस्थित हई। संघश्रीने उससे कहा-देखती हो, धर्मपर बड़ा संकट उपस्थित हुआ है। उसे दूरकर धर्मकी रक्षा करनी होगी। अकलंक बड़ा पंडित है। उसके साथ शास्त्रार्थकर विजय प्राप्त करना असम्भव था। इसीलिये मैंने तुम्हें कष्ट दिया है। यह शास्त्रार्थ मेरे द्वारा तुम्हें करना होगा और अकलंकको पराजितकर बुद्धधर्मकी महिमा प्रगट करनी होगी। बोलो-क्या कहती हो ? उत्तर में देवीने कहा-हाँ मैं शास्त्रार्थ करूँगी सही, पर खुली सभामें नहीं; किन्तु परदेके भीतर घड़ेमें रहकर । 'तथास्तु' कहकर संघश्रीने देवीको विजित किया और आप प्रसन्नताके साथ दूसरी निद्रा देवीकी गोदमें जा लेटा।
प्रातःकाल हुआ। शौच, स्नान, देवपूजन आदि नित्य कर्मसे छुट्टी पाकर संघश्री राजसभामें पहुंचा और राजासे बोला-महाराज, हम आजसे शास्त्रार्थ परदेके भीतर रहकर करेंगे। हम शास्त्रार्थके समय किसीका मुंह नहीं देखेंगे । आप पूछेगे क्यों ? इसका उत्तर अभी न देकर शास्त्रार्थ के अन्तमें दिया जायगा। राजा संघश्रीके कपट जालको कुछ नहीं समझ सके। उसने जैसा कहा वैसा उन्होंने स्वीकार कर उसी समय वहाँ एक
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