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सगर चक्रवर्तीको कथा
२४९ हमें भोजन न करनेको भी बाध्य होना पड़ेगा। सगरने जब इनका अत्यन्त ही आग्रह देखा तो उसने इनसे कहा-मेरो इच्छा नहीं कि तुम किसी कष्टके उठानेको तैयार हो । पर जब तुम किसी तरह माननेके लिये तैयार ही नहीं हो, तो अस्तु, मैं तुम्हें यह काम बताता हूँ कि श्रीमान् भरत सम्राट्ने कैलास पर्वत पर चौवीस तीर्थंकरोंके चौबीस मन्दिर बनवाये हैं। वे सब सोनेके हैं। उनमें बे-शुमार धन खर्च किया है। उनमें जो अर्हन्त भगवान्की पवित्र प्रतिमाएँ हैं वे रत्नमयी हैं। उनकी रक्षा करना बहत जरूरी है। इसलिए तुम जाओ और कैलासके चारों ओर एक गहरी खाई खोदकर उसे गंगाका प्रवाह लाकर भर दो। जिससे कि फिर दुष्ट लोग मन्दिरोंको कुछ हानि न पहुँचा सकें। सगरके सब ही पुत्र पिताजोको इस आज्ञासे बहुत खुश हुए। वे उन्हें नमस्कार कर आनन्द ओर उत्साहके साथ अपने कामके लिए चल पड़े । कैलास पर पहुँच कर कई वर्षों के कठिन परिश्रम द्वारा उन्होंने चक्रवर्तीके दण्डरत्नकी सहायतासे अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर ली।
अच्छा, अब उस मणिकेतुकी बात सुनिए-उसने सगरको संसारसे उदासीन कर योगी बनानेके लिए दोबार यत्न किया, पर दोनों हो बार उसे निराश हो जाना पड़ा । अबकी बार उसने एक बड़ा ही भयंकर कांड रचा। जिस समय सगरके ये साठ हजार लड़के खाई खोदकर गंगाका प्रवाह लानेको हिमवान पर्वत पर गये और इन्होंने दण्ड-रत्न द्वारा पर्वत फोड़नेके लिए उस पर एक चोट मारी उस समय मणिकेतुने एक बड़े भारो और महाविषधर सर्पका रूप धर, जिसकी कि फूकार मात्रसे कोसों के जीव-जन्तु भस्म हो सकते थे, अपनी विषैली हवा छोड़ी। उससे देखतेदेखते वे मब ही जलकर खाक हो गये। सच है, अच्छे पुरुष दूसरेका हित करनेके लिए कभी-कभी तो उसका अहित कर उसे हितकी ओर लगाते हैं । मन्त्रियोंको इनके मरनेकी बात मालूम हो गई। पर उन्होंने राजासे इसलिए नहीं कहा कि वे ऐसे महान् दुःखको न सह सकेंगे। तब मणिकेतू ब्राह्मणका रूप लेकर सगरके पास पहुंचा और बड़े दुःखके साथ रोतारोता बोला-राजाधिराज, आप सरोखे न्यायी और प्रजाप्रिय राजाके रहते मुझे अनाथ हो जाना पड़े, मेरी आँखोंके एक मात्र तारेको पापो लोग जबरदस्तो मुझसे छुड़ा ले जायँ, मेरी सत्र आशाओं पर पानी फेर कर मुझे द्वार-द्वारका भिखारी बना जायँ और मुझ रोता छोड़ जायँ तो इससे बढ़कर दुःखको और क्या बात होगी ! प्रभो, मुझे आज पापियोंने बे-मौत मार डाला है। मेरी आप रक्षा कीजिये-अशरण-शरण, मुझे
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