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लक्ष्मीमतीकी कथा
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अवस्था इसकी जवान थी। इसमें सब गुण थे, पर एक दोष भी था । वह यह कि इसे अपनी जातिका बड़ा अभिमान था और यह सदा अपनेको सिंगारने - सजाने में मस्त रहती थी ।
एक दिन पन्द्रह दिन के उपवास किये हुए श्रीसमाधिगुप्त मुनिराज आहार के लिए इसके यहाँ आये । सोमशर्मा उन्हें आहार करानेके लिए भक्ति से ऊँचे आसन पर विराजमान कर और अपनी स्त्रीको उन्हें आहार करा देने के लिए कहकर आप कहीं बाहर चला गया। उसे किसी कामकी जल्दी थी ।
इधर ब्राह्मणी बैठी-बैठी काचमें अपना मुख देख रही थी । उसने अभिमानमें आकर मुनिको बहुतमी गालियाँ दीं, उनको निन्दा की और किवाड़ बन्द कर लिए। हाय ! इससे अधिक और क्या पाप होगा ? मुनिराज शान्त स्वभावी थे, तपके समुद्र थे, सबका हित करनेवाले थे, अनेक गुणोंसे युक्त थे और उच्च चारित्रके धारक थे; इसलिए ब्राह्मणोकी उस दुष्टता पर कुछ ध्यान न देकर वे लौट गये। सच है, पापियोंके यहाँ आई हुई निधि भी चली जाती है। मुनि निन्दाके पापसे लक्ष्मीमती के सातवें दिन कोढ़ निकल आया । उसकी दशा बिगड़ गई। सच है, साधु-सन्तों की निन्दा-बुराईसे कभी शान्ति नहीं मिलती । लक्ष्मोमतीकी बुरी हालत देखकर घरके लोगोंने उसे घर से बाहर कर दिया। यह कष्ट पर कष्ट उससे न सहा गया, सो वह आगमें बैठकर जल मरी । उसकी मौत बड़े बुरे भावोंसे हुई । उस पापसे वह इसी गाँव में एक धोबीके यहाँ गधी हुई | इस दशा में इसे दूध पीनेको नहीं मिला । यह मरकर सूअरी हुई। फिर दो बार कुत्तीको पर्याय इसने ग्रहण की। इसी दशा में यह वनमें दावाग्निसे जल मरी । अब वह नर्मदा नदी के किनारे पर बसे हुए भृगुकच्छ गाँव में एक मल्लाह के यहाँ काणा नामकी लड़की हुई । शरीर इसका जन्मसे ही बड़ा दुर्गन्धित था । किसीकी इच्छा इसके पास तक बैठनेकी नहीं होती थी । देखिये अभिमानका फल, कि लक्ष्मीमती ब्राह्मणी थी, पर उसने अपनी जातिका अभिमान कर अब मल्लाहके यहाँ जन्म लिया । इसलिए बुद्धिमानों को कभी जातिका गर्व न करना चाहिए ।
एक दिन काणा लोगोंको नाव द्वारा नदी पार करा रही थी । इसने नदी किनारे पर तपस्या करते हुए उन्हीं मुनिको देखा, जिनकी कि लक्ष्मीमतीकी पर्याय में इसने निन्दा की थी। उन ज्ञानी मुनिको नमस्कार कर इसने पूछा- प्रभो, मुझे याद आता है कि मैंने कहीं आपको देखा है ? मुनिने
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