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________________ २१६ आराधना कथाकोश लोगों को कष्ट देने लगा । राजा उसके पकड़वानेका प्रबन्ध करनेमें लग गये । उन्हें मुनिके पारणेकी बात याद न रही । सो मुनि शहरमें इधर-उधर घूम-घामकर वापिस वन में लौट गये । शहरके और किसी गृहस्थने उन्हें इसलिए आहार न दिया कि राजाने उन्हें सख्त मना कर दिया था । दूसरे दिन कर्मसंयोगसे शहर के किसी मुहल्ले में भयंकर आग लग गई, सो राजा इसके मारे व्याकुल हो उठे । मुनि आज भो सब शहर में तथा राजमहल में भिक्षा के लिए चक्कर लगाकर लौट गये । उन्हें कहीं आहार न मिला। तीसरे दिन जरासन्ध राजाका किसी विषयको लिए आज्ञापत्र आ गया, सो आज इसकी चिन्ताके मारे उन्हें स्मरण न आया । सच है, अज्ञानसे किया काम कभी सिद्ध नहीं हो पाता। मुनि आज भी अन्तराय कर लौट गये । शहर बाहर पहुँचते न पहुँचते वे गश खाकर जमीन पर गिर पड़े। मुनिकी यह दशा देखकर एक बुढ़ियाने गुस्सा होकर कहायहाँका राजा बड़ा ही दुष्ट है। न तो मुनिको आप ही आहार देता है और न दूसरों को देने देता है । हाय ! एक निरपराध तपस्वीकी उसने व्यर्थ हो जान ले ली । बुढ़िया की बातें मुनिने सुन लीं । राजाकी इस नीचता पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आया। वे उठकर सीधे पर्वत पर गये । उन्होंने विद्याओंको बुलाकर कहा - मथुराका राजा बड़ा पापी है, तुम जाकर फौरन ही मार डालो ! मुनिको इस प्रकार क्रोधकी आग उगलते देख विद्याओंने कहा -- प्रभो, आपको कहनेका हमें कोई अधिकार नहीं, पर तब भी आपके अच्छेके लिहाज से और धर्म पर कोई कलंक न लगे कि एक जैनमुनिने ऐसा अन्याय किया, हम निःसंकोच होकर कहेंगी कि इस वेपके लिए आपकी यह आज्ञा सर्वथा अनुचित है और इसीलिए हम उसका साथ देनेके लिए भी हिचकती हैं । आप क्षमाके सागर हैं, आपके लिए शत्रु और मित्र एक हीसे हैं। मुनि पर देवियोंकी इस शिक्षाका कुछ असर नहीं हुआ। उन्होंने यह कहते हुए प्राण छोड़ दिये कि अच्छा, तुम मेरी आज्ञा दूसरे जन्ममें तो पालन करना ही । में दानमें विघ्न करनेवाले इस उग्रसेन राजाको मारकर अपना बदला अवश्य चुकाऊँगा । मुनिने तपस्या नाश करनेवाले निदानको - तपका फल परजन्ममें मुझे इस प्रकार मिले, ऐसे संकल्पको करके रेवतीके गर्भ में जन्म लिया । सच है, क्रोध सब कामोंको नष्ट करनेवाला और पापका मूल कारण है । एक दिन रेवतीको दुर्बल देखकर उग्रसेनने उससे पूछा - प्रिये, दिनोंदिनों तुम ऐसी दुबली क्यों होती जाती हो ? मुझे तुम्हें चिन्तातुर देख बड़ा खेद होता है । रेवतीने कहा -- नाथ, क्या कहूँ, कहते हृदय काँपता है । नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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