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लुब्धक सेठ की कथा
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morant स्त्री नागवसु अपने घर पर महाराजको आये देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई । उसने महाराजकी भेंटके लिए सोनेका थाल बहुमूल्य सुन्दर-सुन्दर रत्नोंसे सजाया और उसे अपने स्वामीके हाथमें देकर कहाइस थालको महाराजको भेंट कीजिए । रत्नोंके थालको देखकर लुब्धककी तो छाती बैठ गई, पर पास ही महाराजके होनेसे उसे वह थाल हाथों में लेना पड़ा। जैसे ही थालको उसने हाथोंमें लिया उसके दोनों हाथ थर-थर धूजने लगे और ज्यों ही उसने थाल देनेको महाराजके पास हाथ बढ़ाया तो लोभके मारे इसकी अंगुलियाँ महाराजको साँपके फणकी तरह देख पड़ीं। सच है, जिस पापीने कभी किसीको एक कौड़ी तक नहीं दी, उसका मन क्या दूसरे की प्रेरणासे भी कभी दानकी ओर झुक सकता है ? नहीं । राजाको उसके ऐसे बुरे बरताव पर बड़ी नफरत हुई। फिर एक पल भर भी उन्हें वहाँ ठहरना अच्छा न लगा । वे उसका नाम 'फणहस्त' रखकर अपने महल पर आ गये ।
लुब्धकको दूसरा बैल बनानेकी उच्चाकांक्षा अभी पूरी नहीं हुई । वह वह उसके लिए धन कमानेको सिंहलद्वीप गया । लगभग चार करोड़का धन उसने वहाँ रहकर कमाया भी। जब वह अपना धन, माल असबाब जहाज पर लाद कर लौटा तो रास्तेमें आते-आते कर्मयोगसे हवा उलटी बह चली । समुद्र में तूफान पर तूफान आने लगे एक जोरकी आँवो आई | उसने जहाज को एक ऐसा जोरका धक्का मारा कि जहाज उलट कर देखते-देखते समुद्र के विशाल गर्भ में समा गया । लुब्धक, उसका धनअसबाब, इसके सिवा और भी बहुत-से लोग जहाजके संगी हुए । लुब्धक आर्त्तध्यानसे मरकर अपने धनका रक्षक साँप हुआ । तब भी उसमेंसे एक भी किसी को नहीं उठाने देता था ।
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एक सर्पको अपने धन पर बैठा देखकर लुब्धकके बड़े लड़के गरुड़दत्तको बहुत क्रोध आया और इसीलिए उसने उसे उठाकर मार डाला | यहाँ से वह बड़े बुरे भावोंसे मरकर चौथे नरक गया, जहाँ कि पापकर्मों का बड़ा ही दुस्सह फल भोगना पड़ता है। इस प्रकार धर्मरहित जीव क्रोध, मान, माया, लोभ आदिके वश होकर पापके उदयसे इस दुःखोंके समुद्र संसार में अनन्त कालतक दुःख कष्ट उठाया करता है । इसलिए जो सुख चाहते हैं, जिन्हें सुख प्यारा है, उन्हें चाहिए कि वे इन क्रोध, लोभ, मान, मायादिकों को संसार में दुःख देनेवाले मूल कारण समझ कर इनका - मन, वचन और शरोरसे त्याग करें और साथ ही जिनेन्द्र भगवान् के उप
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