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धनके लोभसे भ्रममें पड़े कुबेरदत्तकी कथा
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"गन्धर्वसेन राजाकी कौशाम्बी नगरी में एक अंगारदेव सुनार रहता था । जातिका यह ऊँच था । यह रत्नोंकी जड़ाईका काम बहुत ही बढ़िया करता था । एक दिन अंगारदेव राजमुकुटके एक बहुमूल्य मणिको उजाल रहा था । इसी समय उसके घर पर मेदज नामके एक मुनि आहार के लिए आये । वह मुनिको एक ऊँची जगह बैठाकर और उनके सामने उस मणिको रखकर आप भीतर स्त्रीके पास चला गया। इधर मणिको माँसके भ्रमसे कूंज पक्षी निगल गया । जब सुनार सब विधि ठीक-ठाककर पोछा आया तो देखता है वहाँ मणि नहीं । मणि न देखकर उसके तो होश उड़ गये । उसने मुनिराज से पूछा - मुनिराज, मणिको मैं आपके पास अभो रख कर गया हूँ, इतनेमें वह कहाँ चला गया ? कृपा करके बतलाइये। मुनि चुप रहे । उन्हें चुप्पी साधे देखकर अंगारदेवका उन्हीं पर कुछ शक गया । उसने फिर पूछा- स्वामी, मणिका क्या हुआ ? जल्दो कहिये । राजाको मालूम हो जाने से वह मेरा और मेरे बाल-बच्चों तकका बुरा हाल कर डालेगा। मुनि तब भी चुप ही रहे । अब तो अंगारदेवसे न रहा गया । क्रोधसे उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया । उसने जान लिया कि मणिको इसोने चुराया है । सो मुनिको बाँधकर उसने उन पर लकड़ेको मार मारना शुरू की । उन्हें खूब मारा-पीटा सही, पर तब भी मुनि उसी तरह स्थिर बने रहे । ऐसे धनको, ऐसी मूर्खताको धिक्कार है जिससे मनुष्य कुछ भी सोच-समझ नहीं पाता और हर एक कामको जोश में आकर कर डालता है । अंगारदेव मुनिको लकड़ेसे पीट रहा था तब एक चोट उस कूंज पक्षीके गले पर भी जाकर लगी। उससे वह मणि बाहर आ गिरा । मणिको देखते ही अंगारदेव आत्मग्लानि, लज्जा और पश्चात्तापके मारे अधमरा-सा हो गया । उसे काटो तो खून नहीं । वह मुनिके पाँवों में गिर पड़ा और रो-रो कर उनसे क्षमा कराने लगा ।" इतना कह कर मुनिराज बोले- क्यों सेठ महाशय, अब समझे ? मेदज मुनिको उस मणिका हाल मालूम था, पर तब भो दयाके वश हो उन्होंने पक्षोका मणि निगल जाना न बतलाया । इसलिए कि पक्षीकी जान न जाय और न मुनियों का ऐसा मार्ग ही है । इसी तरह मैं भी यद्यपि तुम्हारे घड़ेका हाल जानता हूँ, तथापि कह नहीं सकता । इसलिये कि संयमीका यह मार्ग नहीं है कि वे किसीको कष्ट पहुँचावें । अब जैसा तुम जानते हो और जो तुम्हारे मनमें हो उसे करो । मुझे उसकी परवा नहीं ।
घड़ेका छुपानेवाला कुबेरदत्त अपने पिता और मुनिका यह परस्परका कथोपकथन छुपा हुआ सुन रहा था । मुनिका अन्तिम निश्चय सुन उसको
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