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आराधना कथाकोश
ममता छोड़ने वाले जो साधु-सन्त हैं, उनसे भी जो ऊँचे हैं, जिनके त्यागसे आगे त्यागकी कोई सीमा नहीं, ऐसे सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर परिग्रहसे डरे हुए दो भाइयोंकी कथा लिखी जाती है ।
दशार्ण देशमें बहुत सुन्दर एकरथ नामका एक शहर था । उसमें धनदत्त नामका सेठ रहता था । इसकी स्त्रीका नाम धनदत्ता था । इसके धनदेव और धनमित्र ऐसे दो पुत्र और धनमित्रा नामकी एक सुन्दर लड़की थी ।
धनदत्तकी मृत्यु के बाद इन दोनों भाइयोंके कोई ऐसा पापकर्मका उदय आया, जिससे इनका सब धन, वन नष्ट हो गया, ये महा दरिद्र बन गये । 'कुछ सहायता मिलेगी' इस आशासे ये दोनों भाई अपने मामाके यहाँ कौशाम्बी गये और इन्होंने बड़े दुःखके साथ पिताकी मृत्युका हाल मामाको सुनाया । मामा भी इनकी हालत देखकर बड़ा दुःखी हुआ । उसने अनेक प्रकार समझा-बुझाकर इन्हें धीरज दिया और साथ ही आठ कीमती रत्न दिये, जिससे कि ये अपना संसार चला सकें। सच है, यही बन्धुपना है, यही दयालुपना है और यही गम्भीरता है जो अपने धन द्वारा याचकोंकी आशा पूरी की जाय ।
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दोनों भाई उन रत्नों को लेकर पीछे अपने रास्ते में आते-आते इन दोनोंकी नियत उन रत्नोंके होके मनमें परस्परके मार डालनेकी इच्छा हुई जानेसे इन्हें सुबुद्धि सूझ गई। दोनोंने अपने-अपने ही पश्चात्ताप किया और परस्पर में अपना विचार प्रगट कर मनका मेल निकाल डाला । ऐसे पाप विचारोंके मूल कारण इन्हें वे रत्न ही जान पड़े । इसीलिए उन रत्नोंको वेत्रवती नदीमें फेंककर ये अपने घर पर चले आये। उन रत्नोंको मांस समझकर एक मछली निगल गई । यही मछली एक धीवर के जालमें आ फँसी । धीवरने मछलीको मारा । उसमें से वे रत्न निकले । धीवरने उन्हें बाजार में बेच दिया । धीरे-धीरे कर्मयोगसे वे ही रत्न इन दोनों भाइयोंकी माँके हाथ पड़े । माताने उनके लोभसे अपने लड़के-लड़की को ही मार डालना चाहा । परन्तु तत्काल सुबुद्धि उपज जानेसे उसने बहुत पश्चात्ताप किया और रत्नोंको अपनी लड़की को दे दिये । धनमित्राकी भी यही दशा हुई । उसकी भी लोभके मारे नियत बिगड़ गई । उसने माता, भाई आदिकी जान लेनी चाही । सच है, संसारमें सबसे बड़ा भारी पापका मूल लोभ है । अन्त में धनमित्राको भी अपने
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घरकी ओर रवाना हुए । लोभसे बिगड़ी । दोनों
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इतने में गाँव पास आ नीच विचारों पर बड़ा
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