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आराधना कथाकोश
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गुरुजी ने अपनेको "अजैर्यष्टव्यम्" इसका क्या अर्थ समझाया था, इसका खुलासा करनेका भार वसु पर छोड़ दिया । वसु उक्त वाक्यका ठीक अर्थ जानता था और यदि वह चाहता तो सत्यकी रक्षा कर सकता था, पर उसे अपनी गुराणोजीके माँगे हुए वरने सत्यमार्गसे ढकेल कर आग्रही और पक्षपाती बना दिया । मिथ्या आग्रहके वश हो उसने अपनी मानमर्यादा और प्रतिष्ठा की कुछ परवा न कर नारदके विरुद्ध फेपला दिया । उसने कहा कि जो पर्वत कहता है वही सत्य है और गुरुजीने हमें ऐसा ही समझाया था कि "अजैर्यष्टव्यम्” इसका अर्थ बकरोंको मारकर उनसे होम करना चाहिये । प्रकृतिको उसका यह महा अन्याय सहन नहीं हुआ । उसका परिणाम यह हुआ कि राजा वसु जिस स्फटिकके सिंहासनपर बैठकर प्रतिदिन राजकार्य करता था और लोगोंको यह कहा करता था कि मेरे सत्य के प्रभाव से मेरा सिंहासन आकाशमें ठहरा हुआ है, वही सिंहासन वसुकी असत्यता से टूट पड़ा और पृथ्वी में घुस गया । उसके साथ ही वसु भी पृथ्वीमें जा धँसा। यह देख नारदने उसे समझाया - महाराज, अब भी सत्य सत्य कह दीजिए, गुरुजीने जैसा अर्थं कहा था वह प्रगटकर दोजिए । अभी कुछ नहीं गया । सत्यव्रत आपकी इस संकटसे अवश्य रक्षा करेगा। कुगतिमें व्यर्थ अपने आत्माको न ले जाइए। अपनी इस दुर्दशापर भी वसुको दया नहीं आई । वह और जोश में आकर बोला- नहीं, जो पर्वत कहता है वही सत्य है । उसका इतना कहना था कि उसके पापके उदयने उसे पृथिवीतलमें पहुँचा दिया । वसु कालके सुपुर्द हुआ । मरकर वह सातवें नरक में गया । सच है जिनका हृदय दुष्ट और पापी होता है उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । और अन्त में उन्हें कुगतिमें जाना पड़ता है। इसलिए जो अच्छे पुरुष हैं और पापसे बचना चाहते हैं उन्हें प्राणोंपर कष्ट आनेपर भी कभी न झूठ बोलना चाहिए । पर्वतकी यह दुष्टता देखकर प्रजाके लोगोंने उसे गधेपर बैठा कर शहर से निकाल बाहर किया और नारदका बहुत आदर-सत्कार किया ।
नारद अब वहीं रहने लगा । वह बड़ा बुद्धिमान् और धर्मात्मा था । सब शास्त्रों में उसकी गति थी। वह वहाँ रहकर लोगों को धर्मका उपदेश दिया करता, भगवान्की पूजा करता, पात्रों को दान देता। उसकी यह धर्मपरायणता देखकर वसुके बाद राज्य सिंहासनपर बैठनेवाला राजा उसपर बहुत खुश हुआ। उस खुशीमें उसने नारदको गिरितट नामक नगरीका राज्य भेंटमें दे दिया । नारदने बहुत समय तक उस राज्यका सुख भोगा । अन्त में संसारसे उदासोन होकर उपने जिन दीक्षा ग्रहण कर
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