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वसुराजाकी कथा जिनशासनकी आराधना कर किस किसने सुख प्राप्त न किया ! अर्थात् जिसने जिनधर्म ग्रहण किया उसे नियमसे सख मिला है।
इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धिने धर्म-प्रेमके वश हो यह अहिंसाव्रतकी पवित्र कथा जैनशास्त्रके अनुसार लिखी है। यह सब सुखोंकी देनेवाली माता है और विघ्नोंको नाश करनेवाली है। इसे आप लोग हृदय में धारण करें। वह इसलिए कि इसके द्वारा आपको शान्ति प्राप्त होगी।
मूलसंघके प्रधान प्रवर्तक श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें मल्लिभूषण गुरु हुए। वे ज्ञानके समुद्र थे। उनके शिष्य श्रीसिंहनन्दी मुनि हुए। वे बड़े आध्यात्मिक विद्वान् थे । उन्हें अच्छे-अच्छे परमार्थवित्-अध्यात्मशास्त्रके जानकार विद्वान् नमस्कार करते थे। वे सिंहनन्दी मुनि आपके लिए संसार-समुद्रसे पार करनेवाले होकर संसारमें चिरकाल तक बढ़ें । उनका यशःशरीर बहुत समय तक प्रकाशित रहे ।
२६. वसुराजाकी कथा संसारके बन्धु और देवों द्वारा पूज्य श्रीजिनेन्द्रको नमस्कार कर झूठ बोलनेसे नष्ट होनेवाले वसुराजाका चरित्र मैं लिखता हूँ।
स्वस्तिकावती नामकी एक सुन्दर नगरी थी। उसके राजाका नाम विश्वावसु था। विश्वावसुकी रानी श्रीमती थी। उसके एक वसु नामका पुत्र था।
वहीं एक क्षीरकदम्ब उपाध्याय रहता था। वह बड़ा सुचरित्र और सरल स्वभावी था। जिनभगवान्का वह भक्त था और होम, शान्तिविधान आदि जैन क्रियाओं द्वारा गृहस्थोंके लिए शान्ति-सुखार्थ अनुष्ठान करना उसका काम था । उसकी स्त्रीका नाम स्वस्तिमती था। उसके पर्वत नामका एक पुत्र था। भाग्यसे वह पापी और दुर्व्यसनी हुआ। कर्मोंकी कैसी विचित्र स्थिति है जो पिता तो कितना धर्मात्मा और सरल और उसका पुत्र दुराचारी। इसी समय एक विदेशी ब्राह्मण नारद, जो कि निरभिमानी और सच्चा जिनभक्त था, क्षीरकदम्बके पास पढ़नेके लिए आया । राजकुमार वसु, पर्वत और नारद ये तीनों एक साथ पढ़ने लगे।
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