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मृगसेन धीवरकी कथा
१२९ रहेगा। इसके अतिरिक्त मैं तुझे पंचनमस्कार मंत्र सिखाता हूँ जो प्राणी मात्रका हित करनेवाला है, उसका तू सुखमें, दुःखमें, सरोग या नोरोग अवस्थामें सदैव ध्यान करते रहना : मुनिराजके स्वर्ग-मोक्षके देनेवाले इस प्रकारके वचनोंको सुनकर मृगसेन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने यह व्रत स्वीकार कर लिया। जो भक्तिपूर्वक अपने गुरुओंके वचनोंको मानते हैं, उनपर विश्वास लाते हैं, उन्हें सब सुख मिलता है और वे परम्परासे मोक्ष भी प्राप्त करते हैं।
व्रत लेकर मगसेन नदी पर गया। उसने नदीमें जाल डाला । भाग्यसे एक बड़ा भारी मत्स्य उसके जालमें फँस गया। उसे देखकर धीवरने विचारा-हाय ! मैं निरन्तर हो तो महापाप करता हूँ और आज गुरु महाराजने मुझे व्रत दिया है, भाग्यसे आज ही इतना बड़ा मच्छ जालमें आ फँसा । पर जो कुछ हो, मैं तो इसे कभी नहीं मारूँगा। यह सोचकर व्रती मगसेनने अपने कपड़ेकी एक चिन्दी फाड़कर उस मत्स्यके कानमें इसलिए बाँध दी कि यदि वही मच्छ दूसरी बार जालमें आजाय तो मालूम हो जाये । इसके बाद वह उसे बहत दूर जाकर नदीमें छोड़ आया। सच है, मृत्यु पर्यन्त निर्विघ्न पालन किया हुआ व्रत सब प्रकारकी उत्तम सम्पत्तिको देनेवाला होता है।
वह फिर दूसरी ओर जाकर मछलियाँ पकड़ने लगा। पर भाग्य से इस बार भी वही मच्छ उसके जाल में आया। उसने उसे फिर छोड़ दिया । इस तरह उसने जितनी बार जाल डाला, उसमें वही-वही मत्स्य आया पर उससे वह क्षुब्ध नहीं हुआ अपितु अपने व्रत की रक्षाके लिए खूब दढ़ हो गया। उसे वहाँ इतना समय हो गया कि सूर्य भी अस्त हो चला, पर उसके जाल में उस मत्स्य को छोड़कर और कोई मत्स्य नहीं आया । अन्तमें मृगसेन निरुपाय होकर घर की ओर लौट पड़ा। उसे अपने व्रत पर खूब श्रद्धा हो गई। वह रास्ते भर गुरु महाराज द्वारा सिखाए पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ चला आया । जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुंचा तो उसकी स्त्री उसे खाली हाथ देखकर आग बबूला हो उठी उसने गुस्से से पूछा-रे मुर्ख ! घर पर खाली हाथ तो चला आया, पर बतला तो सहो कि खायगा क्या पत्थर ? इतना कहकर वह घर के भीतर चली गई और गुस्से में उसने भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए । सच है-छोटे कुल शील की खियों का अपने पति पर प्रेम, लाभ
होते रहने पर ही अधिक होता है । अपनी खीका इस प्रकार दुर्व्यवहार । देखकर बेचारा मृगसेन किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसकी कुछ नहीं चली।
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