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आराधना कथाकोश
[ दूसरा भाग ]
२५. मृगसेन धीवरकी कथा केवलज्ञानरूपी नेत्रके धारक श्री जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर मैं अहिंसावतका फल पाने वाले एक धीवरकी कथा लिखता हूँ।
सब सन्देहोंको मिटानेवालो, प्रीतिपूर्वक आराधना करने वाले प्राणियों के लिये सब प्रकारके सुखोंको प्रदान करनेवालो, जिनेन्द्र भगवान्को वागी संसारमें सदैव बनी रहे। ___ संसाररूपी अथाह समुद्रसे भव्य पुरुषोंको पार करानेके लिए पुलके समान ज्ञानके सिन्धु मुनि राज निरन्तर मेरे हृदयमें विराजमान रहें।
इस प्रकार पंचपरमेष्ठीका स्मरण और मंगल करके कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट करनेके लिए मैं अहिंसावतकी पवित्र कथा लिखता है । जिस अहिंसाका नाम ही जीवोंको अभय प्रदान करने वाला है, उसका पालन करना तो निस्सन्देह सुखका कारण है। अतः दयालु पुरुषोंको मन, वचन और कायसे संकल्पी हिंसाका परित्याग करना उचित है। बहुतसे लोग अपने पितरों आदिकी शान्तिके लिए श्राद्ध वगैरहमें हिंसा करते हैं, बहुतसे देवताओंको सन्तुष्ट करनेके लिए उन्हें जीवोंकी बलि देते हैं और कितने हो महामारी, रोग आदिके मिट जानेके उद्देश्यसे जीवोंकी हिंसा करते हैं; परन्तु यह हिंसा सुखके लिए न होकर दुःखके लिए ही होती है । हिंसा द्वारा जो सुखकी कल्पना करते हैं, यह उनका अज्ञान ही है। पाप कर्म कभी सुखका कारण हो हो नहीं सकता। सुख है अहिंसाव्रतके पालन करने में । भव्य जन ! मैं आपको भव भ्रमणका नाश करनेवाला तथा अहिंसावतका माहात्म्य प्रकट करनेवालो एक कथा सुनाता हूँ; आप ध्यानसे सुनें।
अपनी उत्तम सम्पत्तिसे स्वर्गको नीचा दिखानेवाले सुरम्य अवन्तिदेशके अन्तर्गत शिरीष नामके एक छोटेसे सुन्दर गाँवमें मृगसेन नामका
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