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आराधना कथाकोश
निमंत्रण किया और बड़े गोरवके साथ अपने यहाँ उन्हें बुलाया। वहाँ आकर अपना ढोंग दिखलाने के लिये वे कपट मायाचारसे ईश्वराराधन करनेको बैठे। उस समय चेलनीने उनसे पूछा, आप लोग क्या करते हैं ? उत्तरमें उन्होंने कहा-देवी, हम लोग मलमूत्रादि अपवित्र वस्तुओंसे भरे हुए शरीरको छोड़कर अपने आत्माको विष्णु अवस्था में प्राप्त कर स्वानुभवजन्य सुख भोगते हैं।
सुनकर देवी चेलनीने उस मंडपमें, जिसमें सब साधु ध्यान करनेको बैठे थे, आग लगवा दी। आग लगते हो वे सब कव्वेको तरह भाग खड़े हुए । यह देखकर श्रेणिकने बड़े क्रोधके साथ चेलनीसे कहा-आज तुमने साधुओंके साथ बड़ा अनर्थ किया। यदि तुम्हारी उनपर भक्ति नहीं थी, तो क्या उसका यह अर्थ है कि उन्हें जानसे ही मार डालना? बतलाओ तो उन्होंने तुम्हारा क्या अपराध किया जिससे तुम उनके जीवनकी हो प्यासी हो उठी ?
रानी बोली-नाथ, मैंने तो कोई बुरा काम नहीं किया और जो किया वह उन्हींके कहे अनुसार उनके लिये सुखका कारण था। मैंने तो केवल परोपकार बुद्धिसे ऐसा किया था। जब वे लोग ध्यान करनेको बैठे तब मैंने उनसे पूछा कि आप लोग क्या करते हैं ? तब उन्होंने मुझे कहा था कि हम अपवित्र शरीर छोड़कर उत्तम सुखमय विष्णुपद प्राप्त करते हैं । तब मैंने सोचा कि ओहो, ये जब शरीर छोड़कर विष्णुपद प्राप्त करते हैं तब तो बहुत ही अच्छा है और इससे उत्तम यह होगा कि यदि ये निरन्तर विष्णु बने रहें। संसारमें बार-बार आना और जाना यह इनके पीछे पचड़ा क्यों ? यह विचार कर वे निरन्तर विष्णुपदमें रहकर सुखभोग करें, इस परोपकार बुद्धिसे मैंने मंडप में आग लगवा दी थी। आप ही अब विचार कर बतलाइये कि इसमें मैंने सिवा परोपकारके कौन बुरा काम किया ? और सुनिये मेरे वचनोंपर आपको विश्वास हो, इसलिये एक कथा भी आपको सुनाये देती हूँ।
__ "जिस समयको यह कथा है, उस समय वत्सदेशको राजधानी कोशाम्बीके राजा प्रजापाल थे। वे अपना राज्य शासन नीतिके साथ करते हुए सुखसे समय बिताते थे। कोशाम्बी में दो सेठ रहते थे। उनके नाम थे सागरदत्त और समुद्रदत्त। दोनों सेठोंमें परस्पर बहुत प्रेम था। उनका प्रेम उन्होंने सदा दृढ़ बना रहे, इसलिये परस्परमें एक शर्त को। वह यह कि, "मेरे यदि पुत्रो हुई तो मैं उसका ब्याह तुम्हारे लड़केके साथ
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