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आराधना कथाकोश जानकर क्रोधके मारे काँपने लगा। वह एक संन्यासोके वेषमें राजाके पास आया और राजाको उसने केला, आम, सेव, सन्तरा आदि बहुतसे फल भेंट किये । राजा जीभको लोलुपतासे उन्हें खाकर संन्यासीसे बोलासाधुजी, कहिये आप ये फल कहाँसे लाये ? और कहाँ मिलेंगे? ये तो बड़े ही मीठे हैं । मैंने तो आजतक ऐसे फल कभी नहीं खाये । मैं आपकी इस भेंटसे बहुत खुश हुआ। ___ संन्यासीने कहा, महाराज, मेरा घर एक टापूमें है। वहीं एक बहुत सुन्दर बगीचा है। उसीके ये फल हैं। और अनन्त फल उसमें लगे हुए • हैं। संन्यासीकी रसभरी बात सुनकर राजाके मुंहमें पानी भर आया । उसने संन्यासीके साथ जानेकी तैयारी की। सच है__ शुभाऽशुभं न जानाति हा कष्टं लंपट: पुमान ।
-ब्रह्म नेमिदत्त अर्थात्-जिह्वालोलुपी पुरुष भला बुरा नहीं जान पाते, यह बड़े दुःख की बात है। यही हाल राजाका हुआ । जब वह लोलुपताके वश हो उस संन्यासीके साथ समुद्रके बीच में पहुंचा, तब उसने राजाको मारनेके लिये बड़ा कष्ट देना शुरू किया । चक्रवर्ती अपनेको कष्टोंसे घिरा देखकर पंचनमस्कार मंत्रकी आराधना करने लगा। उसके प्रभावसे कपटी संन्यासीकी सब शक्ति रुद्ध हो गई। वह राजाको कुछ कष्ट न दे सका। आखिर प्रगट होकर उसने राजासे कहा-दुष्ट, याद है ? मैं जब तेरा रसोइया था, तब तूने मुझे जानसे मार डाला था ? वही आग आज मेरे हृदयको जला रही है, और उसीको बुझानेके लिये, अपने पूर्व भवका बैर निकालनेके लिये मैं तुझे यहाँ छलकर लाया हूँ और बहुत कष्टके साथ तुझे जानसे मारूँगा, जिससे फिर कभी त ऐसा अनर्थ न करे। पर यदि तू एक काम करे तो बच भी सकता है। वह यह कि तू अपने मुंहसे पहले तो यह कह दे कि संसारमें जिनधर्म ही नहीं है और जो कुछ है वह अन्य धर्म है। इसके सिवा पंचनमस्कार मंत्रको जलमें लिखकर उसे अपने पाँवोंसे मिटा दे, तब मैं तुझे छोड़ सकता हूँ। मिथ्यादृष्टि ब्रह्मदत्तने उसके बहकानेमें आकर वही किया जैसा उसे देवने कहा था । उसका व्यन्तरके कहे अनुसार करना था कि उसने चक्रवर्तीको उसी समय मारकर समुद्र में फेंक दिया। अपना वैर उसने निकाल लिया। चक्रवर्ती मरकर मिथ्यात्वके उदयसे सातवें नरक गया। सच है मिथ्यात्व अनन्त दुःखों का देनेवाला है। जिसका जिनधर्मपर विश्वास नहीं क्या उसे इस अनन्त दुःखमय संसार में
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