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आराधना कथाकोश
था, सो चोरोंने मुनिराजको देख लिया । उन्होंने यह समझ कर, कि ये हमारा पता लोगों को बता देंगे और फिर हम पकड़ लिये जावेंगे, उन्हें पकड़ लिया और अपने मुखियाके पास वे लिवा ले गये । मुखियाका नाम था सूरदत्त | वह मुनिको देखकर बोला- तुमने इन्हें क्यों पकड़ा ? ये तो बड़े सीधे और सरल स्वभावी हैं । इन्हें किसीसे कुछ लेना देना नहीं, किसीपर इनका राग-द्वेष नहीं । ऐसे साधुको तुमने कष्ट देकर अच्छा नहीं किया । इन्हें जल्दी छोड़ दो । जिस भयकी तुम इनके द्वारा आशंका करते हो, वह तुम्हारी भूल है । ये कोई बात ऐसी नहीं करते जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे । अपने मुखियाको आज्ञाके अनुसार चोरोंने उसी समय मुनिराजको छोड़ दिया ।
इस समय नागदत्तकी माता अपनी पुत्रीको साथ लिये हुए वत्स देशकी ओर जा रही थी । उसे उसका ब्याह कोशाम्बीके रहनेवाले जिनदत्त सेठके पुत्र धनपालसे करना था । अपने जमाईको दहेज देने के लिए उसने अपने पास उपयुक्त धन-सम्पत्ति भी रख ली थी । उसके साथ और भी पुरजन परिवारके लोग थे । सो उसे रास्ते में अपने पुत्र नागदत्तमुनि दर्शन हो गये । उसने उन्हें प्रणाम कर पूछा - प्रभो, आगे रास्ता तो अच्छा है न ? मुनिराज इसका कुछ उत्तर न देकर मौन सहित चले गये। क्योंकि उनके लिए तो शत्रु और मित्र दोनों ही समान हैं ।
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आगे चलकर नागदत्ताको चोरोंने पकड़कर उसका सब माल असबाब छीन लिया और उसकी कन्याको भी उन पापियोंने छुड़ा ली । तब सूरदत्त उनका मुखिया उनसे बोला- क्यों आपने देखी न उस मुनिकी उदासीनता और निस्पृहता ? जो इस स्त्रीने मुनिको प्रणाम किया और उनकी भक्ति की तब भी उन्होंने इससे कुछ नहीं कहा और हम लोगोंने उन्हें बांधकर कष्ट पहुँचाया तब उन्होंने हमसे कुछ द्वेष नहीं किया। सच बात तो यह कि उनकी वह वृत्ति ही इतने ऊँचे दरजेकी है, जो उसमें भक्ति करनेवालेपर तो प्रेम नहीं और शत्रुता करनेवालेसे द्वेष नहीं । दिगम्बर मुनि बड़े ही शान्त, धीर, गम्भीर और तत्त्वदर्शी हुआ करते हैं ।
नागदत्ता यह सुनकर, कि यह सब कारस्तानी मेरे ही पुत्रकी है, यदि वह मुझे इस रास्तेका सब हाल कह देता, तो क्यों आज मेरी यह दुर्दशा होती ? क्रोधके तीव्र आवेगसे थरथर काँपने लगी । उसने अपने पुत्रकी निर्दयता से दुःखी होकर चोरोंके मुखिया सूरदत्त से कहा- भाई, जरा अपनी छुरी तो मुझे दे, जिससे में अपनी कूंख को चीरकर शान्ति लाभ
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