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७४ | नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित-केतन शब्द काश्मरी) २. कटुका, ३. नीली वृक्ष (गरी) ४. राजसर्षप (सरसों) ५. कृष्णजीरक (काला जीरा) ६. काकोली (द्रोण काक, काला कौवा) ७. पर्पटी (पपरी शाक विशेष) और ८. सारिकान्तर (मैना)। इस प्रकार कृष्णा शब्द के ये आठ अर्थ हुए । मूल :
चिह्न निमन्त्रणे स्थाने ध्वजे वेश्मनि केतनम् ।
केदार आलवाले स्यात् क्षेत्रे शैलान्तरे शिवे ।। ३६५ ॥ हिन्दी टीका-केतन शब्द नपुंसक है और उसके पांच अर्थ माने जाते हैं-१. चिह्न, २. निमन्त्रण, ३. स्थान, ४. ध्वज (पताका) ५. वेश्म (घर)। केदार शब्द पुल्लिग है और चार अर्थ माने जाते हैं१. आलवाल (कियारी) २. क्षेत्र (खेत) ३. शैलान्तर (पर्वत विशेष-हिमालय, जहाँ केदार शङ्कर रहते हैं) और ४. शिव (शङ्कर, केदार महादेव)। मूल : केवली केवलज्ञानी तीर्थङ्कर उदाहृतः ।
___ केश: कचे दैत्यभेदे ह्रीवेरे वरुणे हरौ ॥ ३६६ ॥ हिन्दी टीका - केवली शब्द पुल्लिग है और उसके दो अर्थ माने जाते हैं १. केवलज्ञानी (तत्त्व ज्ञानी) २. तीर्थङ्कर (भगवान् जिनेश्वर) । केश शब्द पुल्लिग है और उसके पांच अर्थ माने जाते हैं-१. कच (केश-बाल) २. दैत्यभेद (दानव विशेष) ३. ह्रीवेर (नेत्र वाला) ४. वरुण (वरुण देवता) और ५. हरि (विष्णु भगवान्)। मूल : केशरी बकुले सिंहजटायां हिंगुपादपे ।
नागकेशरवृक्षेऽपि पुमान् पुन्नागपादपे ॥ ३६७ ॥ हिन्दी टोका-केशर शब्द पुल्लिग है और उसके पांच अर्थ माने जाते हैं - १. वकुल (मोलशरीभालशरी फूल) २. सिंह जटा (सिंह का बाल) ३. हिंगुपादप (हिङ्ग का वृक्ष) ४. नागकेशर वृक्ष (केशर चन्दन) और ५. पुन्नागपादा (नागकेशर)। इस प्रकार पाँच अर्थ जानना। मूल : केशरी घोटके सिहे नागे बीजपूरके।
नागकेशरवृक्षेऽपि हनुमज्जनके पुमान् ॥ ३६८ ॥ हिन्दी टोका-केशरी शब्द भी पुल्लिग ही माना जाता और उसके छह अर्थ होते हैं --१. घोटक (घोड़ा) २. सिंह (शेर) ३. पुन्नाग (केशर) ४ बीजपूरक (बिजौरा) ५. नागकेशर वृक्ष (नागकेशर) और ६. हनुमज्जनक (हनुमान जी का पिता) । इस तरह छह अर्थ जानना।
केतु द्युतौ पताकायामुत्पाते चिह्नरोगयोः ।
विपक्षे ग्रहभेदेऽथ केतु शब्दः प्रकीर्तितः ॥ ३६६ ॥ हिन्दी टीका-केतु शब्द पुल्लिग है और उसके सात अर्थ माने जाते हैं-१. द्युति (प्रकाश) २. पताका (ध्वज) ३. उत्पात (अनिष्टसूचक उल्कापातादि) ४. चिन्ह, ५. रोग (रोग विशेष) ६. विपक्ष (विरुद्ध पक्ष) और ७. ग्रहभेद (ग्रह विशेष) । इन सात अर्थों में केतु शब्द का प्रयोग होता है । मूल : केवलं निश्चिते कृत्स्नेऽसहाये ज्ञानशुद्धयोः ।
केसर हिंगुकासीस-स्वर्णेषु नागकेशरे ॥ ४०० ॥
मूल :
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