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२४ | नानार्थोदयसागर कोष हिन्दी टीका सहित - आकर्ष शब्द
अर्थं होते हैं - १. शारिफलक (पाशा गोटी रखने का काष्ठ या कपड़े का चौपड़) २. देवन (जुआ खेलना ) ३. पाशक (गोटी ) । इस प्रकार आयोग शब्द के पाँच, आकर शब्द के तीन और आकर्ष शब्द के भी तीन अर्थ समझना ।
मूल :
इन्द्रिये
धनुरभ्यासवस्तुन्याकर्षणेऽपि च । आकल्पो मण्डने वेषे रोग- कल्पनयो पुमान् ॥। १२२ ।। आक्रन्दो रोदने नाथे भ्रातर्याह्वानमित्रयोः । ध्वनौ दारुण - संग्रामे पाष्णिग्राहात्परे नृपो ॥ १२३॥
हिन्दी टोका - आकर्ष शब्द के और भी तीन अर्थ हैं - १. इन्द्रिय (आँख वगैरह ) २. धनुरभ्यास वस्तु (धनुविद्या के अभ्यास करने का साधन) और ३. आकर्षण ( खींचना ) । इस प्रकार कुल मिलाकर आकर्ष शब्द के छह अर्थ समझना चाहिए। आकल्प शब्द भी पुल्लिंग ही है और उसके चार अर्थ होते हैं - १. मण्डन (भूषण) २. वेष (पोशाक) ३. रोग ( व्याधि) ४. कल्पन ( कल्पना करना) । इसी तरह आनन्द शब्द भी पुल्लिंग है और उसके नौ अर्थ होते हैं - १. रोदन ( रोना, रोदन करना) २. नाथ (स्वामी मालिक) ३. भ्राता (भाई) ४. आह्वान (बोलाना ) ५. मित्र (दोस्त) ६. ध्वनि (आवाज) ७. दारुण संग्राम (घोर युद्ध लड़ाई) ८. पाणिग्राहनृप (पीछे से शत्रु पर आक्रमण - चढ़ाई करने वाला राजा) । इस प्रकार आकल्प शब्द के चार और आॠन्द शब्द के नौ अर्थ हुए।
मूल :
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आखुश्चौरे - देव तालवृक्षे शूकर- उन्दुरौ । आग्रहो ग्रहणासक्त्योराक्रमेऽनुग्रहे पुमान् ॥ १२४॥ कुञ्जरगर्जिते ।
संमदे पुमान् ॥ १२५ ॥
आडम्बरस्तु पटहे तुर्ये आरम्भे पक्ष्मणि क्रोधे भुजंगे
हिन्दी टीका - आखु शब्द पुल्लिंग है और उसके पाँच अर्थ होते हैं - १. चौर (तस्कर) २. देव (देवता) ३. ताल वृक्ष, ४. शूकर (शूकर-शूगर ) ५. उन्दुरु ( चूहा - उन्दर ) । इसी प्रकार आग्रह शब्द भी पुल्लिंग है और उसके चार अर्थ होते हैं - १. ग्रहण ( ग्रहण करना लेना) २. आसक्ति (फँसावट, टेब) ३ आक्रम (आक्रमण चढ़ाई करना) और ४. अनुग्रह ( दया करना) । इसी तरह आडम्बर शब्द भी पुल्लिंग है और उसके आठ अर्थ होते हैं - १. पटह ( नगाड़ा ढक्का) २. तुयं (वाद्य बाजा विशेष ) अथवा तुर्य शब्द का अर्थ चतुर्थ ( चौथा ) भी होता है । ३. कुंजरगजित ( हाथी का चीत्कार चिंघाड़ना) ४. आरम्भ (प्रारम्भ करना) ५. पक्ष्म (आँख का पलक) ६. क्रोध (गुस्सा) ७. भुजंग (सर्प) और ८. संमद (हर्ष आनन्द) । इस तरह आखु शब्द के पाँच आग्रह शब्द के चार और आडम्बर शब्द के आठ अर्थ जानना ।
मूल :
आयस्त्रिलिंगो धनिके विशिष्टेपि च वाच्यवत् ।
आतङ्कः पुंसि शंकायां सन्तापे मुरजध्वनौ ॥ १२६ ॥ आमयेज्वर आणिस्तु सीम्नऽध्यऽक्षाग्रकीलयोः । आत्मभूर्ब्रह्मण शिवे कन्दर्पे गरुडध्वजे ।।१२७॥
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