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________________ नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित-भृश शब्द | २४५ मूल: भृशं त्वतिशये क्लीवं प्रकर्षे 'शोभनेऽव्ययम् । भेदो विदारणे द्वैधे उपजाप - विशेषयोः ॥१३६१॥ भोगः सुखे भाटके च भुजंगफण - देहयोः । भोगवान् भुजगे नाट्ये गाने भोगयुते त्रिषु ॥१३६२॥ हिन्दी टोका-भृश शब्द-१. अतिशय (अत्यन्त) अर्थ में नपुंसक माना जाता है किन्तु २. प्रकर्ष (उत्कर्ष) और ३. शोभन (सुन्दर) अर्थ में भृश शब्द त्रिलिंग माना जाता है। भेद शब्द के चार अर्थ माने गये हैं-१. विदारण (विदारण करना) २. द्वैध (भेदभाव) ३. उपजाप (चुगली, चारियापन) और ४. विशेष । भोग शब्द पुल्लिग है और उसके भी चार अर्थ माने जाते हैं - १. सुख, २. भाटक (भाड़ा) ३. भजंगफण (सर्प का फण) और ४. देह (शरीर)। पूल्लिग भोगवान शब्द के तीन अर्थ माने गये हैं१. भुजग (सर्प) २. नाट्य और ३. गान किन्तु ४. भोगयुत (भोग वाला) अर्थ में भोगवान् शब्द त्रिलिंग माना जाता है। मूल : भोगी सर्प ग्रामपात्रे वैयावृत्तिकरे नृपे। भोग्यं धान्ये धने क्लीवं भागयोग्ये त्वसौ त्रिषु ॥१३६३।। हिन्दी टोका-भोगी शब्द नकारान्त पुल्लिग है और उसके चार अर्थ माने गये हैं—१. सर्प, २. ग्रामपात्र (ग्राम के योग्य या ग्राम का पात्र वगैरह) ३. वैयावृत्तिकर (सेवा करने वाला) तथा ४. नृप (राजा)। नपुंसक भोग्य शब्द के दो अर्थ होते हैं-१. धान्य और २. धन, किन्तु ३. भागयोग्य अर्थ में भोग्य शब्द त्रिलिंग माना जाता है। भ्रामको जम्बुके धूर्ते सूर्यावर्ते शिलान्तरे। भ्रूणो गर्भेऽर्भके भ्रषो गतौभ्रशे यथोचितात् ॥१३६४॥ मकरन्दः पुष्परसे किंजल्के कुन्दपादपे। कुलालदण्डे वकुले दर्पणे मुकुरः स्मृतः ॥१३६५॥ हिन्दी टीका-भ्रामक शब्द के चार अर्थ माने गये हैं-१. जम्बुक (सियार) २. धर्त (वञ्चक चालाक) ३. सूर्यावर्त (सूर्य का आवर्त-घेरावा, परिवेष) और ४. शिलान्तर (प्रस्तर विशेष)। भ्रण शब्द के दो अर्थ माने गये हैं-१. गर्भ और .२. अर्भक (बच्चा)। भ्रष शब्द के भी दो अर्थ माने जाते हैं - १. गति (गमन) और २. यथोचितात्भ्रश (योग्य उचित कर्तव्य से गिर जाना)। मकरन्द शब्द के तीन अर्थ माने जाते हैं-१. पुष्परस २. किंजल्क (केशर) और ३. कुन्दपादप (कुन्द नाम का सफेद पुष्पविशेष)। मकुर शब्द के भी तीन अर्थ माने जाते हैं-१. कुलालदण्ड (कुम्हार का दण्डा) २. वकुल (मोलशरी) ३. दर्पण (आइना, मुकुर)। मूल : मंगला पार्वती शुक्लदूर्वा साध्वीषु कीर्तिता। मंगले कुशले क्लीवं मंगलोऽङ्गारके पुमान् ॥१३६६॥ मंगल्यं चन्दने दध्नि स्वर्ण सिन्दूरयोरपि । मज्जाऽस्थिसारे वृक्षादेरुत्तमस्थिरभागके ॥१३६७।। मूल : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016062
Book TitleNanarthodaysagar kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherGhasilalji Maharaj Sahitya Prakashan Samiti Indore
Publication Year1988
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size22 MB
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