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६६ : जैन पुराणकोश
साघु
शेष सभी भाई इनके पास आये और इनसे दीक्षित हो गये थे । मपु ० ३४.९७, ११४- १२५ मरीचि को छोड़कर शेष नृप जो इनके साथ दीक्षित हो गये थे सम्यक्चारित्र का पालन नहीं कर सके । उन्होंने से दिगम्बरी साधना का मार्ग छोड़ दिया। उनमें से भी बहुत इनसे बन्ध और मोक्ष का स्वरूप सुनकर पुनः निर्ग्रन्थ हो गये थे । वीवच० २.९६-९७ संघस्थ मुनियों में चार हजार सात सौ पचास तो पूर्वधर थे, इतने ही भूत के शिक्षक थे। नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार केवलज्ञानी, बीम हजार छः सौ विक्रिया ऋद्धि के धारी, बीस हजार सात सौ विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी और इतने ही अस्पात गुणों के धारक मुनि थे । हपु० १२.७१-७७ इनके संघ में चौरासी गणधर थे - १. वृषभसेन २ कुम्भ ३ दृढरथ ४. शत्रुदमन ५. देवशर्मा ६. धनदेव ७. नन्दन ८. सोमदत्त ९. सुरदत्त १०. वायुस ११. सुबा १२. देवाग्नि १२. अग्निदेव १४. अग्निभूति १५. तेजस्वी १६. अग्निमित्र १७ र १८. महीपर १९ माहेन्द्र २०. वसुदेव २१. वसुन्धरा २२. अचल २३. मेरु २४. भूति २५. सर्वसह २६. यज्ञ २७ सर्वगुप्त २८ सर्वदेव २९. सर्वप्रिय ३०. विजय ३१. विजयगुप्त ३२. विजयमित्र ३३. विजयश्री ३४. पराख्य २५. अपराजित ३६. सुमित्र ३७. वसुसेन १८. साधुन ३९. सत्यदेव ४०. सत्यवेद ४१. सर्वगुप्त ४२. मित्र ४३. सत्यवान् ४४. विनीत ४५. संवर ४६. ऋषिगुप्त ४७. ऋषिदत्त ४८. यज्ञदेव ४९. यज्ञगुप्त ५०. यज्ञमित्र ५१. यज्ञदत्त ५२. स्वायंभुव ५३. भागदत्त ५४. भागफल्गु ५५. गुप्त ५६. गुप्तफल्गु ५७. मित्रफल्गु ५८ प्रजापति ५९. सत्यवश ६०. वरुण ६१. धनवाहित ६२. महेन्द्र ६२. तेजोराशि ६४. महारच ६५.विजयभूति ६५. महाल ६७ विशाल ६८.६९. ७०. चन्द्रचूड ७९. मेघेश्वर ७२. कच्छ ७३. महाकच्छ ७४. सुकच्छ ७५. अतिबल ७६. भद्राबलि ७७. नमि ७८ विनमि ७९. भद्रबल ८०. नन्दि ८१. महानुभाव ८२. नन्दिमित्र ८३. कामदेव और ८४. अनुपम । पपु० ४.५७ हपु० १२.५३-७० संघ में शुद्धात्मतत्त्व को जाननेवाली पचास हजार आर्यिकाएं, पांच लाख भाविकाएं और तीन लाख श्रावक थे । एक लाख पूर्व वर्ष तक इन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार सागर से पार होने का उपदेश करते हुए पृथिवी पर विहार किया था। इसके पश्चात् ये कैलाश पर्वत पर ध्यानारूढ़ हुए और एक हजार राजाओं के साथ योग-निरोध कर, देवों से पूजित होकर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया था । हपु० १२.७८-८१, पपु० ४. १३० पूर्वभवों में नौवें पूर्वभव में ये अलका नगरी के राजा अतिबल के महाबल नाम के पुत्र थे । मपु० ४.१३३ आठवें पूर्वभव में ये ऐशान स्वर्ग में ललितांग नामक देव हुए। मपु० ५.२५३ सातवें पूर्वभव में ये राजा बच्चबाह और उनकी रानी वसुन्धरा के बचच नामक पुत्र हुए । मपु० ६.२६-२९ छठे पूर्वभव में ये उत्तरकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए थे। पु० ९.३३ पाँच पूर्वभव में ये ऐशान - स्वर्ग में श्रीधर नाम के ऋद्धिधारी देव हुए थे । मपु० ९.१८५ चौथे पूर्वभव में सुसीम नगर में सुदृष्टि और उनकी रानी सुन्दरनन्दा के सुविधि नामक पुत्र हुए। ० १०.१२१-१२२ तीसरे पूर्वभव में मे
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ऋषि- एककल्याण
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अच्युते हुए मपु० १०. १७० दूसरे पूर्वभव में वे राजा बचसेन और उनकी रानी श्रीकान्ता के वज्रनाभि नामक पुत्र हुए। मपु० ११. ९ प्रथम पूर्वभव में से सर्वार्थसिद्धि] स्वर्ग में अहमिन्द्र हुए थे। म ११.१११
ऋषि- ऋद्धिपारी मुनि ये परिग्रह रहित होकर तप करते हुए जीव रक्षा में रत रहते हैं । मपु० २.२७ २८ २१.२२०, पपु० ११.५८, ११९.६१,०२,६१
ऋषिविर राजगृह नगर के पांच पर्वतों में एक पर्वत यह पूर्व दिशा में स्थित है और आकार में चौकोर है । हपु० ३.५१-५३ ऋषिगुप्त - वृषभदेव का छियालीसवां गणधर । हपु० १२.६३ ऋषिवत्त-वृषभदेव का सैंतालीसवां गणधर । हपु० १२.६३
ऋषिदत्ता -- चन्दनवन नगर के राजा अमोघदर्शन तथा रानी चारुमति की कन्या, चारुचन्द्र की बहिन । इसने एक चारणऋद्धिधारी मुनि से अणुव्रत धारण किये थे । श्रावस्ती के राजा शान्तायुध के पुत्र से इसका विवाह हुआ । इसके एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ था किन्तु प्रसूति के बाद ही इसका मरण हो गया । सम्यग्दर्शन के प्रभाव से यह ज्वलनप्रभवल्लभा नाम की नागकुमारी हुई । हपु० २९. २४-४७ ऋषिवास — लक्ष्मण का जीव । यह विजयावती नगरी के निवासी गृहस्थ
सुनन्द और उनकी भार्या रोहिणी का पुत्र था तथा अर्हद्दाम का अनुज था । पपु० १२३.११२-११५ ऋषिमन्त्र-तत्त्वज्ञ मुनियों द्वारा मान्य इस नाम से अमिति मंत्रअज्जाताय नमः, नियंन्याय नमः, वीतरागाय नमः, महाव्रताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः महायोगाय नमः, विविधयोगाय नमः, विविषये नमः, अंगधराय नमः, पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नमः, अनुपमजाताय नमो नमः, सम्यग्दृटे सम्यग्दृष्ष्टे भूपते भूपते नगरपते गगरपते, कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मपु० ४०. ३८-४७
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ऋषिवंश वृषभदेव के समय के चार महावंशी (इक्ष्वाकु ऋषि विद्यापर और हरिवंश) में एक वंश। इसी वंश को सोमवंश अपरनाम चन्द्रवंश कहा है। इसकी उत्पत्ति इत्वाकु वंशी राजा बाहुबलि के पुत्र सोमश से हुई थी । पपु० ५.१-२, ११-१३, हपु० १३.१६ ० सोमवंश
ऋष्यमूक एक पर्वत । चेदिराष्ट्र को जीतने के बाद पंपा सरोवर को पार करके भरतेश को सेना इस पर्वत पर पहुँची थी । मपु० २९.५६
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एक - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८७ एककर्ण – लम्पाक देश का राजा । लवणांकुश ने इसे पराजित किया था । पपु० १०१.७३-७४
एककल्याण - एक व्रत । इसकी साधना के लिए पहले दिन नीरस आहार लिया जाता है । दूसरे दिन के पिछले भाग में आधा आहार लिया
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