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आवित्यवंश-आनन्द
जैन पुराणकोश : ४७ मादित्यवंश-सूर्यवंश । इस वंश में भरत के पुत्र आदित्ययशा (अर्ककीति) आषानक्रिया-गर्भान्वय की पन क्रियाओं में प्रथम क्रिया। ऋतुस्नाता
के बाद में राजा हुए है-स्मितयशा, बलाक, सुबल, महाबल, अति- पत्नी को आगे करके गर्भाधान के पहले अर्हन्तदेव की पूजा के द्वारा बल, अमृतबल, सुभद्र, सागर, भद्र, रवितेज, शशी, प्रभूततेज, तेजस्वी, मंत्रपूर्वक किया गया संस्कार । इस पूजा में त्रिचक्र, त्रिछत्र, त्रिपुण्यातपन, प्रतापवान्, अतिवीर्य, सुवीर्य, उदितपराक्रम, महेन्द्रविक्रम, सूर्य, ग्नियाँ स्थापित हो जाती है और अहंत-पूजा के बचे द्रव्य के द्वारा इन्दद्युम्न, महेन्द्रजित्, प्रभु, विभु, अविध्वंस, वीतभी, वृषभध्वज, पुत्रोत्पत्ति की कामना से मंत्रपूर्वक उन त्रिविध अग्नियों में आहुतियाँ गरुडांक और मृगांक आदि । ये सभी एक दूसरे को राज्य सौंप कर देकर सन्तानार्थ ही बिना किसी विषयानुराग के पति-पत्नी सहवास निर्ग्रन्थ हुए थे। इनमें सितयशा को स्मितयशा कहा गया है। इस करते हैं । मपु० ३८.५५-६३, ७०-७६ * वंश के कुछ राजा तो स्वर्ग गये और कुछ मोक्ष को प्राप्त हुए । पपु० आधि-मानसिक व्यथा । हपु० ८.२८ ५.४-१०, हपु० १३.७-१५
आधिकारिणी-साम्परायिक आस्रव की पच्चोस क्रियाओं में हिंसा के आदित्यवर्ण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
उपकरण शस्त्र आदि के ग्रहण से उत्पन्न एक क्रिया । हपु० ५८.६७
आध्यान-अनित्य आदि बारह भावनाओं का बार-बार चिन्तन करना। आदित्याभ-(१) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वभाग में मेरु पर्वत से पूर्व की
मपु० २१.२२८ ओर स्थित पुष्कलावती देश में विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का
आनंग-एक पर्वत । इस पर्वत पर भरत की सेना ने पड़ाव किया था। नगर । मपु० ६२.३६१
मपु० २९.७०
आनक-(१) मधुर और गम्भीर ध्वनिकारी एक मांगलिक वाद्य । इसे (२) लान्तव स्वर्ग का एक देव । पूर्वभव में यह वीतभय नाम का
डंडों से बजाया जाता है । मपु० ७.२४२, १३.७ बलभद्र था । अपने भाई मुनि संजयन्त पर उपसर्ग करने वाले विद्युद्
(२) वसुदेव का नाम । हपु० १.९० दंष्ट को धरणेन्द्र ने समुद्र में गिराना चाहा था किन्तु यह देव उसे
आनकबुन्दुभि-वसुदेव के लिए व्यवहृत नाम । हपु० ५१.७, ५३.३-४ समझाकर विद्यु दंष्ट्र को धरणेन्द्र से छुड़ा लाया था। मपु० ५९.१२८१४१, २८०-२८१, २९६-३००, हपु० २७.१११-११४ अन्त में यह
____ानत-(१) अवलोक में स्थित तेरहवां कल्प (स्वर्ग) । पपु० १०५. देव स्वर्ग से च्युत होकर उत्तरम थुरा नगरी के राजा अनन्तवीर्य और १६६-१६९, हपु० ६.३८ उसकी मेरुमालिनी रानी के मेरु नाम का पुत्र हुआ । इस भव में इसने
(२) इस स्वर्ग का इस नाम का प्रथम इन्द्रक विमान । हपु० विमलवाहन तीर्थकर के पास जाकर पूर्वभव के सम्बन्ध सुने और उन्हीं से दीक्षित होकर उनका गणधर हुआ। हपु० ५९.३०२-३०४
मानतेन्द्र-आनत स्वर्ग का इन्द्र । यह महावीर को केवल ज्ञान होने पर आविदेव-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम ।
पुष्पक विमान से सपरिवार उनकी पूजा के लिए गया था। वीवच.
१४.४७ मपु० १७.२२१, २४.३०, २५.१९२ आविनाथ-नाभिराज के पुत्र, वृषभ चिह्न से युक्त तीर्थकर वृषभदेव । आनन्च-(१) विजयाष पवत की उत्तरथणी का एक नगर । हपु० मपु० १.१५ दे. ऋषभदेव
२२.८९ आदिपुरुष-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु. १५.६१, (२) विजयार्घ पर्वत की दक्षिण णी का एक नगर । हपु० २४.३१
२२. ९३ आदिमद्वोप-जम्बूद्वीप । मपु० ४९.२
(३) पाण्डव पक्ष का एक नृप । हपु० ५०.१२५ आदिमसंस्थान-समचतुरस्रसंस्थान । मपु० ६७.१५३
(४) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु की पश्चिम दिशा में विद्यमान आविमेन्द्र-सौधर्मेन्द्र । मपु० ७१.४८
विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत नन्दशोक नगर का निवासी एक सेठ । इसकी आविसंहनन-वजवृषभनाराच संहनन । मपु० ६७.१५३
पत्नी का नाम यशस्विनी था । हपु० ६०.९६-९७ आद्यकवि-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३७
(५) भरतेश को वृषभदेव का समाचार देनेवाला एक चर। मपु० आधजिन-प्रथम तीर्थकर वृषभदेव । मपु० ४८.२६
४७.३३४ आधशुक्लध्यान-पृथक्त्ववीचार शुक्लध्यान । मपु० २०.२४४
(६) वृषभदेव के गणधर वृषभसेन के पूर्वभव का जीव । मपु० आधश्रेणी-क्षपकश्रेणी । मपु० ६३.२३४
४७.३६७ आद्यानुयोग-श्रुतस्कन्ध के चार महाधिकारों में इस नाम का प्रथम (७) तीर्थकरों के जन्म और मोक्षकल्याण के समय इन्द्र के द्वारा अनुयोग । यह सत्पुरुषों के चरित्र वर्णन से युक्त है तथा चारों किया जानेवाला अनेक रसमय एक नृत्य । मपु० ४७.३५१, ४९.२५ अनुयोगों में प्रथम होने से सार्थक नामवाला प्रथमानुयोग नाम से इसके आरम्भ में गन्धर्व गीत गाते हैं फिर इन्द्र उल्लासपूर्वक नृत्य प्रसिद्ध है । मपु० २.९८, १०६
करता है । मपु० १४.१५८, ४७.३५१, ४९.२५, वीवच० ९.१११माखसंस्थान-प्रथम समचतुरनसंस्थान । मपु० ४८.१४
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