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संस्कार-अश्य
के भेद से दो प्रकार की होती है । असंयम अप्रत्याख्यानावरण चारित्रमोह का उदय रहने तक (चतुर्थ स्थान रहता है। यह अन्य का कारण है । मपु० ५४.१५२, ६२.३०३-३०४ असंस्कृत - सुसंस्कार - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६८
असंहतव्यूह - सैन्य रचना का एक प्रकार। इसमें सेना को फैलाकर खड़ा किया जाता है । मपु० ३१.७६
असदृष्यान - इष्ट और अनिष्ट वस्तुओं का ध्यान । ऐसा ध्यान संक्लेश
से युक्त होता है इसीलिए वह असद्ध्यान है । मपु० २१ २२ २३ असद्वेध - दुःख और दुःख की सामग्री का उत्पादक असातावेदनीय कर्म । घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से इस कर्म की शक्ति अकिंचित्कर हो जाती है । मपु० २५.४०-४२
असद्वे द्याव - असाताकारी आस्रव । निज और पर दोनों के विषय में होने वाले दुःख, शोक, वध, आक्रन्दन, ताप और परिवेदन ये इस आस्रव के द्वार हैं । हपु० ५८.९३
असन - (१) विजयार्ध पर्वत का तटवर्ती वृक्ष । मपु० १९.१५२
(२) तोयंकर अभिनन्दननाथ का चैत्यवृक्ष मपु० ५०.५५ असना - एक अटवी । इसमें विमलकान्तार नामक पर्वत है । मपु०
५९. १८८
असमोक्ष्याधिकरण - अनर्थदण्डव्रत के पाँच अतिचारों में एक अतिचारप्रयोजन का विचार न करके आवश्यकता से अधिक किसी कार्य में प्रवृत्ति करना कराना । हपु० ५८. १७९
असम्भ्रान्त --- प्रथम नरकभूमि धर्मा के तेरह प्रस्तारों में सातवें प्रस्तार
का इन्द्रक बिल । हपु० ४.७६-७७ दे० रत्नप्रभा
असि - चक्रवर्ती भरतेश को प्राप्त चौदह रत्नों में एक अजीव रत्न । इस रत्न का रावण और इन्द्र विद्याधर ने भी प्रयोग किया था। इसका
प्रयोग मध्ययुग में बहुत होता था । मपु० ५.२५०, ३८.८३-८५,
४४.१८० पु० १२.२५७
अधिकर्म वृषभदेव द्वारा उपदिष्ट आजीविका के छः कर्मों में एक कर्मशस्त्र प्रयोग करके आजीविका प्राप्त करना । मपु० १६. १७९-१८१, हपु० ९.३५
असिकोष -- तलवार रखने का म्यान। मपु० ५.२५० असित पर्वत - (१) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । पु०
२२.९६
(२) इक्कीसवें तीर्थंकर के तीर्थ में उत्पन्न मातंग वंशीय प्रहसित नाम के राजा का जन्म स्थान । हपु० २२.१११
असिद्ध - सिद्धेतर जीव (संसारी जोव)। ये जीव तीन प्रकार के होते हैंअसंयत, संयतासंयत और संयत। इनमें असंयत जीव आरंभ के चार गुणस्थानों में होते हैं, संयतासंयत पंचम गुणस्थान में और संयत छठे से चौदहवें गुणस्थान तक रहते हैं । हपु० ३.७२-७८ असिधेनुकारी मपु० ५.११३
असिपत्र - खड्ग की धार के समान पैने पत्तोंवाले नारकीय वन । नारकीय
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जैन पुराणकोश : ४३
जीव गर्मी के दुःख से पीड़ित होकर छाया प्राप्ति के इच्छा से जैसे ही इन वनों में पहुँचते हैं, यहाँ के वृक्षों से गिरते हुए पत्र उनके शरीर को छिन्न-भिन्न कर देते हैं । मपु० १०.५६-५७, ६९, पपु० २६.८०, ८६, १०५.१२२-१२३, १२३.१४, वीवच० ३.१३६-१३७
असुर - (१) देव । ये प्रथम तोन नरक-पृथिवियों तक जाकर नारकियों को उनके पूर्वभव सम्बन्धी वैर का स्मरण कराकर परस्पर लड़ाते हैं । ये न केवल स्वयं नारकियों को मारते हैं अपितु सेवकों से भी उन्हें दण्डित कराते हैं । मपु० १०.४१, ३३.७३, पपु० १२३.४-५
(२) विद्याधरों का एक नगर । पपु० ७.११७
(३) असुर नगर के निवासी होने से इस नाम से अभिहित विद्याधर । पपु० ७.११७ असुरकुमार — पाताल लोकवासी दस प्रकार के भवनवासी देव । ये पाताल लोक में रहते हैं । इनकी उत्कृष्ट आयु एक सागर से कुछ अधिक होती है तथा ऊँचाई पच्चीस धनुष । ये क्रोधी तथा भवनवासी नागकुमार देवों के विरोधी होते हैं । मपु० ६७.१७३, हपु० ४.६३-६८ असुरधूपन – एक पर्वत । दिग्विजय के समय भरतेश यहाँ ठहरे थे । मपु०
२९.७०
असुरविजय — लोभ - विजय, धर्म-विजय और असुर- विजय इन तीन प्रकार के राजाओं में तीसरे प्रकार के राजा। असुर विजय राजा को भेद तथा दण्ड के प्रयोग से वश में किया जाता है। रावण इसी प्रकार का राजा था। मपु० ६८.३८३-३८५
असुर संगीत विजयानं पर्वत की दक्षिणश्रेणी का नगर -मय विद्यार की निवासभूमि । पपु० ८.१
असुरोद्गीत - एक नगर । सुतार असुर यहाँ का राजा था। हपु०
४६.८
अस्तिकाय - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच द्रव्य बहु
प्रदेशी होने से अस्तिकाय कहलाते हैं। काल द्रव्य को इस नाम से सम्बोधित नहीं किया गया है, क्योंकि यह एक प्रदेशी होता है मपु० ३.८-९, २४.९०, हपु० ४.५ अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व-चौदह पूर्वो में चतुर्थ पूर्व
में जीव आदि द्रव्यों के अस्तित्व का कथन २.२८, १०.८९ दे० पूर्व अस्तेय पाँच व्रतों में तीसरा व्रत
यह साधु के अट्ठाई मूलगुणों में एक मूलगुण है । इस व्रत की साधना इन पाँच भावनाओं से होती हैं - मितग्रहण, उचित ग्रहण, अभ्यनुज्ञान ग्रहण, सविधिग्रहण और भोजन तथा पान में सन्तोष । इसके पाँच अतिचार हैं- स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार मपू० १८.७१ २०.९४०९५, १५९, १६२, ० २.१२८,
इसमें साठ लाल पदों किया गया है । हपु०
५८.१७१-१७३
अस्पृश्य - शूद्र दो प्रकार के होते हैं—कार और अकारु । इनमें कारु शूद्र स्पृश्य और अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के होते हैं । अस्पृश्य कारु बस्ती के बाहर रहते हैं । मपु० १६.१८६
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