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________________ अर्धस्वर्गीय - अर्हवासी अर्धस्वर्गीय - ऋद्धि और भोगों का प्रदाता और वन-उपवनों से विभूषित लंका का एक द्वीप । पपु० ४८. ११५-११६ अर्धहार - चौसठ लड़ियों का हार । मपु० १६.५९ अर्यमा - सूर्य । चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन अर्यमा के शुभ योग में तीर्थंकर वर्द्धमान का जन्म हुआ था । मपु० ७४.२६२ अर्थदेवी - मेघपुर के राजा विद्याधर अतीन्द्र और उसकी भार्या श्रीमती की पुत्री, श्रीकण्ठ की छोटी बहन । यह लंका के राजा कीर्तिघवल से विवाही गयी थी । पपु० ६.२ ६ अहं - बीज मंत्र | यह आदि में अकार, अन्त में हकार तथा मध्य में विन्दु सहित रेफ मुक्त होता है। इसका ध्यान करने से दुखी नहीं होते। यह बीजमंत्र "मर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वताभ्यो नमः" इस रूप में सोलह अक्षरोंवाला और "अहंभ्यो नमः" के रूप में छ अक्षरोंवाला होता है । मपु० २१.२३१-२३५ अहंच्छ्री - पोदनपुर के राजा उदयाचल की रानी, हेमरथ की जननी । पपु० ५.३४५-३४६ अर्हतु - (१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४०, २५.११२ (२) शरीर सहित जीवन्मुक्त प्रथम परमेष्ठी । ये दो प्रकार के होते हैं- सामान्य महंत और तीर्थकर अर्हतु इनमें सामान्य हेतु पंचकल्याणक विभूति से रहित होते हैं। वृषभदेव से महावीर पर्यन्त धर्म चक्र प्रवर्तक चौबीस ऐसे ही तीर्थंकर हैं। विशेष पूजा के योग्य होने से ये अर्हत् कहलाते हैं। ये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का नाश कर लेते हैं। इन कर्मों का क्षय हो जाने से इनके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट हो जाते हैं। इन्हें अष्ट प्रातिहार्य और समवसरण रूप वैभव प्राप्त हो जाता है। राग-द्वेष आदि दोषों से रहित हो जाने से ये आप्त कहलाते हैं । इनके जन्म लेने पर और केवलज्ञान होने पर दसदस अतिशय होते हैं । देव भी आकर चौदह अतिशय प्रकट करते हैं । अष्ट मंगल द्रव्य इनके साथ रहते हैं। ये सभी जीवों का हित करते हैं । मपु० २.१२७-१३४, पपु० १७.१८०-१८३ हपु० १.२८, ३.१० - ३० इसी नाम को आदि में रखकर निम्न मंत्र प्रचलित हैंपीठिका मन्त्र - " अहंज्जाताय नमः" तथा "अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः", जाति मंत्र अम्मात् शरणं प्रपद्यामि", "अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि" तथा " अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि" और निस्तारक मंत्र-"अज्जाताय स्वाहा " मपु० ४०.११, १९.२७-२८, ३२ अर्हत् पूजा-अभ्युदयकारी धार्मिक कृत्य । अभिषेक पूर्वक गन्ध आदि से जिनेन्द्र की अर्चा करना । मपु० ६.१०७, ७.२७६-२७८ अर्हदत्त - (१) महावीर की मूल परम्परा में लोहाचार्य के पश्चात् होने वाले चार आचार्यों में अन्तिम आचार्य । वीवच० १.४१-४२ (२) धनदत्त और नन्दयशा का पुत्र । मपु० ७०.१८५, हपु० १८.११२-११५ (३) एक सेठ | इसने वर्षायोग में आहार के लिए आये गगन Jain Education International जैन पुराणको ३७ बिहारी मुनियों को निराचार जानकर उन्हें आहार नहीं दिया पीछे आचार्य द्युति भट्टारक के द्वारा भूल बतायी जाने पर इसने बहुत पश्चात्ताप किया और अन्त में इन मुनियों को मथुरा 薛 आहार देकर संतुष्ट हुआ । पपु० ९२.१४-३१, ४२ अर्हव्यास - ( १ ) सद्भद्रिलपुर के निवासी सेठ धनदत्त और उसकी भार्या नन्दयशा का चौथा पुत्र । मपु० ७०.१८२-१८६, हपु० १८.११३-११५ (२) धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व मेरु के पश्चिम विदेह में गन्धिला नामक देश की अयोध्या नगरी का राजा । इसकी दो रानियाँ थींसुव्रता और जिनदत्ता । इन दोनों रानियों के क्रमशः वीतभय बलभद्र और विभीषण नारायण ये दो पुत्र हुए थे । मपु० ५९.२७७-२७८, हपु० २७.१११-११२ (३) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सोतोदा नदी के उत्तर तट पर स्थित सुगन्धिला देश के सिंहपुर नगर का राजा। जिनदत्ता इसकी रानी थी। इस रानी से अपराजित नाम का एक पुत्र हुआ था । इसने इसी पुत्र को राज्य देकर विमलवाहन जिनेन्द्र से दीक्षा धारण कर ली थी तथा अन्त में इन्हीं गुरु के साथ मोक्ष पद पाया था । मपु० ७०.४, १५, हपु० ३४.३-१० (४) जम्बूद्वीप के कोशल देश में स्थित अयोध्या नगरी का निवासी सेठ वप्रथी इसकी भाव थी तथा उससे पूर्णभद्र और मणिभद्र ये दो पुत्र हुए थे । अन्त में इसने इसी नगरी के राजा अरिंजय के साथ संयम धारण किया था । मपु० ७२.२५-२९ (५) जम्बूद्वीप के कुरुजांगल देश में स्थित हस्तिनापुर का राजा । 'काश्यपा इसकी रानी थी। पूर्णभद्र और मणिभद्र के जीव स्वर्ग से च्युत होकर मधु और क्रीडव नाम से इसके दो पुत्र हुए थे । मपु० ७२.२५-३९ (६) राजगृही का एक सेठ इसकी जिनदासी नाम की भार्या यो अन्तिम केवली जम्बूस्वामी इसी के पुत्र थे।०७६.२५-२७ । (७) जम्बूकुमार के वंश में उत्पन्न सेठ धर्मप्रिय और उसकी भार्या गुणदेवी का पुत्र । यह महाव्यसनी था फिर भी कुछ पुण्य के प्रभाव से अनावृत नामक देव हुआ । मपु० ७६.१२४-१२७ (८) इस नाम का एक जैन । इसने सुन्दर नाम के मिथ्यात्वी विप्र को उसका मिथ्यात्व छुड़ाकर सुमार्ग पर लगाया था । मपु० १९.१७० - १९६ (९) एक श्रेष्ठी । राम को इसी ने बताया था कि उनके कष्ट से मुनिसंघ भी व्यथित है । तभी सुव्रत मुनि के आगमन की सूचना उन्हें मिली थी । पपु० ११९.१०-१२ (१०) मेरु पर्वत के पूर्व में स्थित विजयावती नगरी के गृहस्थ सुनन्द और उसकी स्वो रोहिणी का पुत्र और ऋषिदास का बड़ा भाई। यह तो रावण का जीव था और ऋषिदास लक्ष्मण का । पपु० १२३.११२-११६, १२७ अर्हव्वासी — तीर्थंकर शान्तिनाथ के संघ की चार लाख श्राविकाओं में मुख्य श्राविका । मपु० ६३.४९४ दे० शान्तिनाथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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