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________________ अरजस्का - अरिंदम अरजस्का — विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी की बीसवीं नगरी । मपु० १९.४५, ५३ अरजा- (१) विदेह क्षेत्र में स्थित शङ्खा देश की राजधानी । मपु० ६३. २०८-२१६, हपु० ५.२६२ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११२ अरति - ( १ ) इस नाम का एक परीषह— रागद्वेष के कारणों के उपस्थित होने पर भी किसी से राग-द्वेष नहीं करना । मपु० ३६.११८ ( २ ) सत्यप्रवाद नामक छठे पूर्व में वर्णित बारह प्रकार की भाषाओं में द्वेष उत्पन्न करनेवाली एक भाषा । हपु० १०.९१-९४ अरलि-कनिष्ठा से कोहनी तक की लम्बाई-हाथ। ० १०.९४ हपु० ५७.५ अरविन्द - ( १ ) महाबल विद्याधर के वंश में उत्पन्न एक विद्याधर । इसने अपने पिता से राज्य प्राप्त किया था । यह अलका नगरी का शासक था । हरिचन्द्र और कुरुविन्द इसके पुत्र थे । इसे दाहज्वर हो गया था । दैवयोग से लड़ती हुई दो छिपकलियों में एक की पूछ कट जाने से निकला रुधिर इसके शरीर पर जा गिरा और इसका दाहज्वर शान्त हो गया । फलस्वरूप आत्तंध्यानवश इसने अपने पुत्र से रुधिर से भरी हुई एक वापी बनाने की इच्छा प्रकट की। मुनि से पिता का मरण अत्यन्त निकट जानकर पुत्र ने पाप भय से वापी को रुधिर से न भरवाकर लाख के घोल से भरवा दिया। इसने वापी afar भरी जानकर हर्ष मनाया किन्तु पुत्र का कपट ज्ञात होने पर वह पुत्र को मारने दौड़ा तथा गिरकर अपनी ही तलवार से मरण को प्राप्त हुआ, और नरक में उत्पन्न हुआ। मपु० ५.८९ - ११४ (२) जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में स्थित सुरम्य देश के पोदन पुर नगर का राजा । इसी नगर के निवासी विश्वभूति ब्राह्मण के पुत्र कमठ और मरुभूति इसके मंत्री थे । मरुभूति को कमठ ने मार डाला था जो मरकर वज्रघोष नाम का हाथी हुआ। इसके संयम धारण करने पर किसी समय इस हाथी ने इसे वन में देखा और जैसे ही वह इसे मारने को उद्यत हुआ उसने इसके शरीर पर श्रीवत्स का चिन्ह देखा । उसे पूर्वभव का अपना सम्बन्धी जान लिया और मारने के अपने उद्यम से विरत हो गया। शान्त होकर इसने इसी से श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये तथा अन्त में मरकर सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ । मपु० ७३.६-२४ I अविदा - अतिवीर्य राजा की रानी । इसके विजयस्पन्दन पुत्र और रतिमाला तथा विजयसुन्दरी पुत्रियाँ थीं। इसकी दोनों पुत्रियों क्रमशः लक्ष्मण तथा भरत से विवाही गयी थीं। पपु० ३८.१-२, ९ अरजय- (१) विजयार्धं पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित साठ नगरों में एक नगर । हपु० २२.८६ (२) विया पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में चौथा नगर | लक्ष्मण ने यहाँ के राजा को अपने आधीन किया था। मपु० १९.४१, ५३, पपु० ९४.१-७, हपु० २२.९३ (३) श्वेत अश्वों द्वारा चालित जयकुमार का इस नाम का एक रथ । मपु० ४४.३२०, पापु० ३.१०९ ५ Jain Education International जैन पुराणकोश : ३३ (४) विनमि का पुत्र । हपु० २२.१०३-१०४ (५) धातकीखण्ड के पश्चिम विदेह क्षेत्र का निवासी, जयवती का पति, क्रूरामर और धनश्रुति का पिता । पपु० ५.१२८- १२९ (६) चित्रपुर का राजा । मपु० ६२.६६-६७, पापु० ४.२६ (७) जयकुमार के साथ दीक्षित उनका पुत्र । मपु० ४७.२८१२८३ (८) अरिजयपुर का राजा इसकी रानी अजितना और प्रीतीमत पुत्री थी । हपु० ३४.१८ (९) जम्बूद्वीप के देश सम्बन्धी साकेत (अयोध्या) का राजा । इसने सिद्धार्थं वन में माहेन्द्र गुरु से धर्मोपदेश सुना और अपने पुत्र अरिंदम को राज्य सौंपकर माहेन्द्र गुरु से ही संयम ग्रहण कर लिया था । मपु० ७२.२५-२९ 1 (१०) भीतराज हरिविक्रम का सेवक मपु० ७५.४७८-४८१ (११) चारण ऋद्धिधारो आदित्यगति मुनि के साथ आये अवधिज्ञानो मुनि । ये दोनों मुनि युगन्धर स्वामी के समवसरण के प्रधान मुनि थे। मपु० ५.१९२-१९६ (१२) मुनि, रेणुकी के बड़े भाई इन्होंने रेणुकी को सील और सम्यक्त्व का उपदेश दिया था और कामधेनु विद्या तथा मन्त्र सहित परशु भी दिये थे । मपु० ६५. ९३-९८ (१३) अरिंदमपुर का नृप । मपु० ७०.३० (१४) एक चारणमुनि । इनके साथ आदित्यगति मुनि थे । राजा श्रीषेण ने इन मुनियों की वन्दना की थी तथा इन्हें आहार दिया था । मपु० ६२.३४८ (१५) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५० १६७ बरजयपुर- विद्याधरों का नगर भेवनाद और बह्निवेग इस नगर के नृप थे । पपु० १३.७३, हपु० २५.२, ३४.१८ अरियम (१) मासोपवासी एक मुनि पुत्र अजितसेन ने इन्हें आहार देकर ५४.१२०-१२१, हपु० १९.८२ अयोध्या के राजा अजितंजय के पंचाश्चर्यं प्राप्त किये थे । मपु० 1 (२) जयकुमार के साथ दीक्षित उनका एक पुत्र । मपु० ४७.. २८१-२८३ (३) कोशल देश में स्थित साकेत नगरी के राजा अरिंजय का पुत्र । इसकी रानी श्रीमती तथा सुप्रबुद्धा पुत्री थी । मपु० ७२.२५२८, ३४ (४) महेन्द्रनगर के राजा महेन्द्र हृदयवेगा के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र १५.१३-१६ (५) तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के पूर्वभव का पिता । पपु० २०. २५-३० (६) अक्षपुर नगर के राजा हरिध्वज और उसकी रानी लक्ष्मी का पुत्र । इसे किसी मुनि से सातवें दिन मरने और मरकर मल का कीट होने की बात ज्ञात हो गई थी, अतः इसने अपने पुत्र प्रीतिकर को यह सब बताकर मल में उत्पन्न कीट को मारने के लिए कह रखा था For Private & Personal Use Only विद्याधर और उसकी रानी अंजनसुन्दरी का भाई पपु० www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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