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४४० : जैन पुराणकोश
सिंहलद्वीप-सिंहिका
विहार पूर्वक करना। महावीर ने इसी वृत्ति से विहार किया था।
मपु० ७४.३१५-३१६ । सिंहसप्रभु-विद्याधर वंश में हुए अनेक राजाओं में एक राजा। यह विद्याधर मृगोद्धर्मा का पुत्र तथा सिंहकेतु का पितां था। पपु०
५.४९-५० सिंहसेन-(१) भरतक्षेत्र में शकटदेश के सिंहपुर नगर का राजा । इसकी
रानी रामदत्ता थी। इसने अपराधी अपने श्रोभूति पुरोहित को मल्लों के मुक्कों से पिटवाया था। पुरोहित मरकर इसी के भण्डार में अगन्धन सामक सर्प हुआ । अन्त में इस सर्प के काटने से यह मरकर हाथो हुआ। मपु० ५९.१४६-१४७, १९३, १९७, हपु० २७.२०४८,५३
(२) तीर्थकर अनन्तनाय का पिता । यह अयोध्या नगरी का इक्ष्वा कुवंशी काश्यपगोत्रो राजा था। इसकी रानी जयश्यामा थी। मपु० ६०.१६-२२, पपु० २०.५०
(३) तीर्थकर अजितनाथ के प्रथम गणधर । मपु० ४८.४३ हपु०
को अपने नगर का राजा बना लिया। राजा हो जाने पर सौदास ने युद्ध में अपने पुत्र पर विजय की। इसके पश्चात् वह उसे ही राज्य देकर तपोवन चला गया था। इसका अपर नाम सिंहसौदास था। पपु० २२.१४४-१५२
(९) वंग देश का राजा। यह नन्द्यावर्तपुर के राजा अतिवीर्य का मामा था । पपु० ३७.६-८, २१ सिंहलद्वीप-(१) पश्चिम समुद्र का तटवर्ती देश । इस देश के राजा को
लवणांकुश ने पराजित किया था। कृष्ण ने इसी नगर की राजपुत्री लक्ष्मणा को हरकर उसके साथ विवाह किया था । महासेन इस नगर का राजकुमार था । यहाँ का राजा अर्घ अक्षौहिणी सेना का स्वामी था। मपु० ३०.२५, पपु० १०१.७७-७८, हपु. ४४.२०-२५, ५०.७१
(२) राजा सोम का पुत्र । यह यादवों का पक्षधर था। इसके रथ - में काम्बोज के घोड़े जोते गये थे । रथ सफेद था । हपु० ५२.१७ सिंहवर-राम का पक्षधर एक नृप । पपु० ५४.५८ सिंहवाह-कंस की नागशय्या । कृष्ण ने इस शय्या पर चढ़कर अजितं
जय नामक धनुष चढ़ाया था तथा पाँचजन्य शंख फूंका था। हपु०
३५.७२-७७ सिंहवाहन-भरतक्षेत्र के विजयाध पर्वत पर अरुण नगर के राजा सुकण्ठ
और रानी कनकोदरी का पुत्र । इसने तीर्थकर विमलनाथके तीर्थ में सद्बोध प्राप्त कर तथा राज्य अपने पुत्र मेघवाहन को देकर लक्ष्मीतिलक मुनि से दीक्षा ले ली थी। पश्चात् कठिन तपश्चरण किया
और समाधिमरण पूर्वक देह त्यागकर यह लान्तप स्वर्ग में उत्कृष्ट
देव हुआ । पपु० १७.१५४-१६२ सिंहवाहिनी-(१) गिरिनार पर्वत पर रहनेवाली अम्बिका देवी। हपु० ६६.४४
(२) चक्रवर्ती भरतेश की शय्या । मपु० ३७.१५४
(३) एक विद्या । रथनपुर के राजा ज्वलनजटी विद्याधर ने प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ को यह विद्या दी थी। चित्तवेग देव ने यही विद्या राम को दी थी। मपु० ६२.२५-३०, ९०, १११-११२, पपु० ६०.
१३१-१३५, पापु० ४.५३-५४, वोवच० ३.९४-९६ ।। सिंहविक्रम-(१) भगलि देश का राजा। इसने अपनी पुत्री विदर्भा चक्रवर्ती सगर को दी थी। मपु० ४८.१२७
(२) राक्षसवंशी एक विद्याधर राजा । पपु० ५.३९५
(३) राम-लक्ष्मण का पक्षधर एक सामन्त । इसने लवणांकुश और मदनाकुश से युद्ध किया था। मपु० १०२.१४५
(४) विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी के गुजा नगर का राजा । यह केवली सकलभूषण का पिता था। पपु० १०४.१०३-११७ सिंहवीर्य-(१) राजा सगर के समकालीन एक मुनि । पपु० ५.१४८
(२) एक राजा । यह नन्द्यावतंपुर के राजा अतिवीर्य का मामा था। पपु० ३७.६-८,२१ सिंहवृत्ति-मुनि चर्या-सिंह के समान निर्भयता पूर्वक एकाकी अदीनता
(४) जम्ब द्वीप में खगपुर नगर का एक इक्ष्वाकुवंशी राजा । इसकी रानी विजया थी । बलभद्र सुदर्शन इसका पुत्र था । मपु० ६१.७०
(५) पुण्डरोकिणो नगरी का राजा । इसने मेघरथ मुनिराज को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । मपु० ६३.३३४-३३५
(६) राजा वसुदेव और रानी बन्धुमती का कनिष्ठ पुत्र । यह बन्धुषेण का छोटा भाई था । हपु० ४८.६२
(७) लोहाचार्य के पश्चात् हुए आचार्य । हपु० ६६.२८ सिंहांक-जरासन्ध के अनेक पुत्रों में एक पुत्र । हपु० ५२.३१ सिंहांकितध्वजा-समवसरण को दस प्रकार को ध्वजाओं में सिंहाकृति
से चिह्नित ध्वजाएँ । ये प्रत्येक दिशा में एक सौ आठ होती हैं । मपु०
२२.२१९-२२० सिंहाटक-एक भाला । यह चक्रवर्ती भरतेश और चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर
अरहनाथ के पास था । मपु० ३७.१६४, पापु० ७.२१ सिंहासन-(१) सिंहवाही पीठासन । गर्भावस्था में तीर्थकर की माता
के द्वारा रात्रि के अन्तिम प्रहर में देखे गये सोलह स्वप्नों में बारहवां स्वप्न । पपु० २१.१२-१५
(२) अष्टप्रातिहार्यों में एक प्रातिहार्य । मपु० २४.४६, ५१ सिंहिका-अयोध्या के राजा नधुष को रानी। राजा नधुष जिस समय
इसे नगर में अकेला छोड़कर प्रतिकूल शत्रुओं को वश में करने के लिए उत्तरदिशा की ओर गया। उस समय नधुष को अनुपस्थित जानकर विरोधी राजाओं ने अयोध्या पर ससैन्य आक्रमण किया, किन्तु इसने उन्हें युद्ध में पराजित किया। यह शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण थी। इसके पराक्रम से कुपित होकर राजा नधुष ने इसे महादेवी के पद से च्युत कर दिया था। किसी समय राजा को दाहज्वर हुआ । इसने करपुट में जल लेकर और राजा के शरीर पर उसे छिड़ककर जैसे ही राजा की वेदना शान्त को और अपने शील का परिचय दिया कि राजा ने प्रसन्न होकर इसे महादेवी के पद पर
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