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________________ ४३० : जैन पुराणकोश सर्वकामिक सर्वमित्र अंक्ति अंक उपवासों के सूचक और स्थान पारणा के प्रतीक है। मपु० ७.२३, हपु० ३४.५२-५८ (६) चक्रवर्ती भरतेश के क्षितिसार कोट का एक गोपुर। मपु० ३७.१४६ (७) पूजा का एक भेद । मपु०७३.५८ सर्वत्रग-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८८ सर्वद-राम का पक्षधर एक विद्याधर राजा। रावण की सेना आयी हुई देखकर यह व्याघ्रवाही रथ पर बैठकर युद्ध करने निकला था। पपु० ५८.५ सर्वदर्शन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सर्वबयित-विदेहक्षेत्र की पुण्डरी किणी नगरी के वैश्य सर्वसमुद्ध का पुत्र । इसकी बहिन सर्वदयिता थी। इसकी दो स्त्रियाँ थीं-सागरसेन की पुत्री जयसेना और धनंजय सेठ की पुत्री जयदत्ता । मपु० ४७.१९१ सर्वकामिक-विजयाध पर्वत के कुजरावर्त नगर का एक उद्यान । वसुदेव को विद्याधरों ने हरकर यहीं छोड़ा था। हपु० १९.६७-६८ सर्वक्लेशापह-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१६३ सर्वग-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९५ सर्वगत-परमर्षियों द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.७१ सर्वगन्ध-अरुण समुद्र का रक्षक देव । हपु० ५.६४६ सर्वगुप्त-(१) वृषभदेव के सत्ताईसवें और इकतालीसवें गणधर । हपु० १२.५९, ६२ (२) एक मुनि। शंखपुर नगर के राजा राजगुप्त और रानी शंखिका दोनों ने इनसे जिनगुणख्याति नामक व्रत ग्रहण किया था। मपु० ६३.२४६-२४७ (३) एक केवली मुनि । इनसे प्रीतिकर ने धर्मोपदेश सुना था। मपु० ५९.७ (४) काकन्दी नगरी के राजा रतिवर्द्धन का मंत्री। इसकी स्त्री विजयावली थी। इसने रात्रि के समय राजमहल में आग लगवा दी थी। राजा सावधान रहता था, अतः आग लगते ही स्त्री और पुत्रों को लेकर महल से बाहर निकल गया था । राजा के न रहने पर यही राजा बना था । अन्त में यह काशी के राजा कशिपु द्वारा पकड़ा गया तथा नगर के बाहर बसाया गया । पपु० १०८.७-३३ सर्वगुप्ति-चौदहवें तीर्थकर अनंतनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु. २०.२८ सर्वजनानन्द-तीर्थंकर शीतलनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु० २०.२७ सर्वज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सर्वतोभद्र-(१) नाभिराय का एक भवन । खम्भे स्वर्णमय और दीवालें मणियों से निर्मित थीं। यह इक्यासी खण्ड का था। कोट, वापिका और उद्यानों से अलंकृत था। हपु० ८.३-४ (२) कृष्ण का महल । इसके अठारह खण्ड थे । हपु० ४१.२७ (३) द्रौपदी की शय्या । हपु० ५४.१५ (४) सुलोचना के स्वयंवर हेतु विचित्रांगद देव द्वारा बनाया गया प्रासाद । पापु० ३.४४ (५) एक तप । इसमें पचहत्तर उपवास तथा पच्चीस पारणाएँ की जाती है । उपवास और पारणाएँ निम्न प्रस्तार क्रम में होती है १ २ ३ ४ ५ १५ सर्वदयिता-सेठ समुद्रदत्त की पत्नी । मपु० ४७.१९८ दे० सर्वदयित सर्वविक् -सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११९ सर्वदेव-वृषभदेव के उन्तीसवें गणधर । हपु० १२.६० सर्वदोषहर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६३ सर्वप्रिय-(१) तीर्थकर वृषभदेव के अट्ठाईसवें गणधर । हपु० १२.६० (२) राम का पक्षधर एक योद्धा । यह विद्याधरों का स्वामी था। रावण को सेना को देखकर यह व्याघ्रवाही रथ पर बैठकर ससैन्य घर से निकला था। पपु० ५८.४ सर्वभव-इस नाम का एक उपवास । विनयश्री इस उपवास के फल___ स्वरूप सौधर्मेन्द्र की देवी हुई थी। हपु० ६०.९२ दे० सर्वतोभद्र सर्वभूतशरण्य-एक मुनि । ये दशरथ के दीक्षागुरु थे । पपु० १.८० सर्वभूतहित-सर्व प्राणियों का हित करनेवाले मनःपर्ययज्ञानी एक मुनि । राजा दशरथ बहत्तर राजाओं के साथ इन्हीं के पास दोक्षित हुए थे। इनका अपर नाम सर्वभूतशरण्य था। पपु० २९.८५, ३२.७८-८१ दे० सर्वभूतशरण्य सर्वभूषण-एक केवली जिन । ये विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में गुजा नगर के राजा सिंहविक्रम और रानी श्री के पुत्र थे। इनकी आठ सौ स्त्रियाँ थीं, जिनमें किरणमण्डला के सोते समय बार-बार हेमरथ का नामोच्चारण करने से इन्होंने वैराग्य धारण कर लिया था और किरणमण्डला भी साध्वी हो गयी थी। किरणमण्डला मरकर विद्यद्वक्त्रा राक्षसी हुई । इस राक्षसी ने इन पर पूर्व वैर के कारण अनेक उपसर्ग किये किन्तु उपसर्गों को जीतकर ये केवलज्ञानी हो गये । इनके केवलज्ञान की पूजा के लिए मेषकेतु देव आया जिसने सीता की अग्नि परीक्षा में सहायता की थी। पपु० १.९७, १०४, १०३-११७, १२७-१२८ सर्वमित्र-धातकीखण्ड द्वीप के पुष्कलावतो देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा चक्रवर्ती प्रियमित्र का पुत्र । प्रियमित्र इसे हो राज्य सौंपकर दीक्षित हो गये थे। मपु० ७४.२३५-२४०, वीवच० ५.१०५ <.. ory mor dom कुल १५ १५ १५, १५ १५ इस प्रस्तार में १ से ५ तक के अंक पंक्तियों में इस विधि में अंकित है कि उनका हर प्रकार से योग १५ ही आता है। पंक्तियों में Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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