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४२० : जेन पुराणकोश
संयत-संवेजिनी
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देखकर व्याघ्रों से जुते हुए रथ पर बैठकर ससैन्य युद्ध करने निकला उपार्जन करने आदि का चिन्तन करना संरक्षणानन्द रौद्रध्यान है । था । पपु० ५८.३
मपु० २१.४२-४३, ५१ संयत-(१) एक महामुनि । बाली के पूर्वभव के जीव सुप्रभ ने इन्हीं संरम्भ-जीवाधिकरण आस्रव के तीन भेदों में एक भेद । कार्य करने मुनि से संयम लिया था । पपु० १०६.१८५, १९२-१९७
का संकल्प करना संरम्भ कहलाता है । हपु० ५८.८४-८५ (२) व्रती जीव । संसारी जीव असंयत, संयतासंयत और संयत संवर-(१) वृषभदेव के पैंतालीसवें गणधर । हपु० १२.६३ तीन प्रकार के होते है। इनमें संयत जीव छठे गुणस्थान से चौदहवें (२) बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु० गुणस्थान तक नौ गुणस्थानों में पाये जाते हैं । हपु० ३.७८
२०.२९-३० संयतासंयत-एक देश व्रतों के धारक जीव । ये कुछ संयत और कुछ (३) तीर्थंकर अभिनन्दननाथ के पिता । पपु० २०.४०
असंयत परिणामवाले होते हैं । ये जीव पांचवें गुणस्थान में होते हैं । (४) आस्रव का निरोध-(कमों का आना रोकना ) संवर है । यह ऐसे जीव हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों दश धर्म, तीन गुप्ति, बारह अनुप्रेक्षा, बारह तप, पंच समिति तथा से यथाशक्ति एक देश विरत होते हैं । महातृष्णा पर ये विजय प्राप्त धर्म और शुक्लध्यान से होता है। इससे प्राणी संसार-भ्रमण से बच कर लेते है । परिग्रह का परिमाण रखते हैं । ये जोव मरकर सौधर्म जाता है । कमों को रोकने के लिए तेरह प्रकार का चारित्र और स्वर्ग से अच्युत स्वर्ग तक के देव होते हैं । हपु० ३.७८, ८१, परीषहों पर विजय तथा ज्ञानाभ्यास भी आवश्यक है । मपु० ९०, १४८
२०.२०६, पपु० ३२.९७, पापु० २५.१०२-१०३ वीवच०११.७४संयम-भरतेश द्वारा व्रतियों के लिए बताये गये छः कर्मों में एक कर्मपांचों इन्द्रियों और मन का वशीकरण तथा छः काय के जीवों की ।
संवर्त-राजपुर नगर का एक ब्राह्मण । यह हिंसा को धर्म मानने में प्रवीण रक्षा । इसमें पांच महाव्रतों का धारण, पांच समितियों का पालन,
था। पपु० ११.१०६-१०७ कषायों का निग्रह और मन-वचन-काय रूप प्रवृत्ति का त्याग किया
संवर्तक-एक रौद्र अस्त्र । यह भयंकर वाण वर्षा करनेवाला होता जाता है। संयमी शरीर को संयम का साधन जानकर उसकी स्थिति
था। जरासन्ध ने यह अस्त्र कृष्ण पर छोड़ा था, जिसे कृष्ण ने के लिए ही आहार करते हैं । वे रसों में आसक्त नहीं होते । ज्ञाना
महाश्वसन अस्त्र से आंधी चलाकर रोका था । हपु० ५२.५० चार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इसके रक्षक संवर्मित-एक प्रकार की सैन्य-सामग्री-कवच । युद्ध करते समय सैनिक हैं। मपु० २०.९, १७३, ३८.२४-३४, हपु० २.१२९, ४७.११,
इसे धारण करते थे। मपु० ३६.१३८ पापु० २२.७१, २३.६५, वीवच० ६.१०
संवादी-संगीत स्वरों के प्रयोग करने के चार भेदों में एक भेद । हपु० संयमश्री-एक आयिका । इसने अंजना के जीव कनकोदरी को उपदेश
१९.१५४ देकर सम्यग्दर्शन धारण कराया था । पपु० १७.१६६-१६९, १९१
संवाह-नगरों का एक प्रकार । जहाँ मस्तक तक ऊँचे-ऊंचे धान्य के ढेर
___ लगे रहते हैं उसे संवाह नगर कहा जाता है । मपु० १६.१७३ । १९४ संयमासंयम-त्रस हिंसा से विरति तथा स्थावर हिंसा से अविरति । संवाहिनी--एक विद्या। दशानन ने यह विद्या सिद्ध की थी । पपु० मपु० ५९.२१४
७.३२६-३३२ संयोगाधिकरण-अजीवाधिकरण आस्रव का एक भेद । यह दो प्रकार संवृतिसत्य-सत्य वचन के दस भेदों में एक भेद। समुदाय को एक
का होता है-भक्तपानसंयोग और उपकरणसंयोग । इनमें भोजन- देश की मुख्यतया से एक रूप कहना । जैसे भेरी, तबला, बाँसुरी पान को अन्य भोजन तथा पान में मिलाना भक्तपान-संयोग है और आदि अनेक वाद्यों का शब्द जहाँ एक समूह में हो रहा है वहाँ भेरी बिना विवेक के उपकरणों का परस्पर मिलाना उपकरण-संयोग है। आदि की मुख्यतया से भेरी आदि का शब्द कहना संवृतिसत्य है । हपु० ५८.८४, ८६, ८९
हपु० १०.१०२ संयोजनासत्य-सत्य वचन के दस भेदों में एक भेद । चेतन और अचेतन संवेग-(१) सोलहकारण भावनाओं में पांचवीं भावना । जन्म, जरा, द्रव्यों का विभाजन नहीं करनेवाला वचन संयोजनासत्य है। क्रौंच मरण तथा रोग आदि शारीरिक और मानसिक दुःखों के भार से व्यूह और चक्रव्यूह सैन्यरचना के भेद हैं । सेना चेतन-अचेतन पदार्थों युक्त संसार से नित्य डरते रहना संवेग भावना है। यह भावना के समूह से बनती है । परन्तु अचेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल विषयों का छेदन करती है । मपु० ६३.३२३, हपु० ३४.१३६ क्रौंचाकार रची हुई सेना को क्रौंचव्यूह और चेतन पदार्थों की विवक्षा (२) सम्यग्दर्शन के प्राथमिक प्रशम आदि चार गुणों में एक न कर केवल चक्र के आकार में रची हुई सेना को चक्रव्यूह कहना गुण । धर्म और धार्मिक फलों में परम प्रीति और बाह्य पदार्थों में संयोजना सत्य है । हपु० १०.१०३
उदासीनता होना संवेग-भाव कहलाता है। मपु० ९.१२३, संरक्षणानन्द-रौद्रध्यान के चार भेदों में चौथा भेद । वे चार ध्यान १०.१५७
है-हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द । इनमें धन के संवेजिनी आक्षेपिणी आदि चार प्रकार की कथाओं में एक प्रकार की
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