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भुतशोणित-श्रेणीबद्धविमान
जैन पुराणकोश : ४१५
अतशोणित-विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । विद्याधर
बाण यहाँ रहता था । हपु० ५५.१६ श्रुतबुद्धि--नन्द्यावर्तपुर के राजा अतिवीर्य का दूत । राजा की दासता स्वीकार करने या अयोध्या छोड़कर समुद्र के उस पार चले जाने का सन्देश भरत के पास यही ले गया था । पपु० ३७.३१-३६ श्रुतसागर-(१) अकम्पनाचार्य के संघस्थ एक मुनि । इन्होंने उज्जयिनी नगरी के राजा श्रीधर्मा के बलि, बृहस्पति आदि मंत्रियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। मंत्री बलि रात्रि में इन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ था किन्तु किसी देव के द्वारा कील दिये जाने से वह इनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका था। हपु० २०.३-११, पापु० ७.३९-४८
(२) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में रथनूपुर-चक्रवाल के राजा ज्वलनजटी विद्याधर का तोसरा मंत्रो। यह राजपुत्री स्वयंप्रभा विद्याधर विद्युत्प्रभ को और विद्युत्प्रभ की बहिन ज्योतिर्माला राजकुमार अर्ककीर्ति को देने का प्रस्ताव लेकर राजा ज्वलनजटी के पास गया था। मपु० ६२.२५, ३०, ६९, ८०, पापु० ४.२८
(३) एक मुनि। इन्होंने भरतक्षत्र में चित्रकारपुर के राजा प्रीतिभद्र के पुत्र प्रीतिकर तथा मंत्री के पुत्र विचित्रमति दोनों को मुनि दीक्षा दी थी। हपु० २७.९७-९९
(४) एक मुनि । जम्बूद्वीप के कौशल देश सम्बन्धी साकेत नगर के राजा वज्रसेन के पुत्र हरिषेण ने इन्हीं मुनि से दीक्षा ली थी। मपु० ७४.२३१-२३३, वीवच० ५.१३-१४
(५) एक मुनिराज । इन्होंने भगीरथ को उसके बाबा सगर के पुत्रों के एक साथ मरने का कारण बताया था । पपु० ५.२८४-२९३
(६) लंका के राजा महारक्ष विद्याधर के प्रमदोद्यान में आये एक मुनि । इन्हीं मुनि से धर्मोपदेश एवं अपने भवान्तर सुनकर महारक्ष
ने तपस्या की थीं । पपु० ५.२९६, ३००, ३१५, ३६०-३६५ श्रुतस्कन्ध-जिनभाषित और गणधर द्वारा रचित द्वादशांग श्रुत । यह अनादिनिधन अभ्युदय एवं मोक्ष रूप उच्च फल देने वाला है। इसके चार महाधिकार कहे हैं। उनमें प्रथम महाधिकार प्रथमानुयोग में तीर्थकर आदि सत्पुरुषों के चरित का वर्णन है । दूसरे करणानुयोग में तीनों लोकों का वर्णन है। तीसरे चरणानुयोग में मुनि और श्रावकों के चारित्र की शुद्धि का निरूपण है और चौथे महाधिकार द्रव्यानुयोग में प्रमाण, नय, निक्षेप आदि से द्रव्य का निर्णय बताया गया है । मपु० १.१८, २.९८-१०१, ३४.१३३, हपु० २.१११ भुतात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१६४ श्रुतायुष-राजा धृतराष्ट्र और रानी गांधारी का पैतालीसवाँ पुत्र ।
पापु० ८.१९८ श्रुतार्थ-भरतक्षेत्र के काशी देश को वाराणसी नगरी के राजा अकम्पन
के चार मंत्रियों में प्रथम मंत्री। इसने राजकुमारी सुलोचना का विवाह चक्रवर्ती भरतेश के पुत्र अर्ककीर्ति के साथ कर देने का राजा अकम्पन को परामर्श दिया था। मपु० ४३.१२१-१२७, १८१-१८७
श्रुति-एक वेण स्वर । हपु० १९.१४७ अतिकोति-(१) बुद्धिमान् पुरुष । इसने वृषभदेव से श्रावक के व्रत लिए थे । मपु० २४.१७८
(२) पाँचवें बलभद्र सुदर्शन के गुरु । पपु० २०.२४६-२४७ श्रुतिरत-नाग नगर के निवासी विश्वांक ब्राह्मण और अग्निकुण्डा ब्राह्मणी का विद्वान पुत्र । इस नगर के राजा कुलकर ने इसे अपना पुरोहित बनाया था । राजा मुनि पद धारण कर रहा था। उस समय इसने वैदिक धर्म का आचरण करने के लिए प्रेरित किया और राजा ने इसकी प्रार्थना स्वीकार भी कर ली थी। राजा को रानी श्रीदामा ने सशंकित होकर राजा सहित इसे मार डाला था। दोनों मरकर
खरगोश हुए । पपु० ८५.४९-६३ श्रेणिक-(१) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृहनगर
का राजा। इसके पिता का नाम कुणिक तथा माता का नाम श्रीमती था। इसके उत्तराधिकार के विषय से भागीदारों से होनेवाले संकट की आशंका से नगर से निष्कासन के बहाने इसे इसके पिता ने कृत्रिम क्रोध प्रकट करके नन्दिग्राम भेज दिया था । इस ग्राम में इसका एक ब्राह्मण की कन्या से विवाह हुआ था। अभयकूमार इसी ब्राह्मणी का पुत्र था। राजा कुणिक ने कुछ समय के पश्चात् इसे राज्य दे दिया था। राज्य प्राप्ति के पश्चात् इसका राजा चेटक की पुत्री चेलिनी के साथ विवाह हुआ था। इसके पुत्र का नाम भी कुणिक ही था । बहुत आरम्भ
और परिग्रह के कारण इसने सातवें नरक की उत्कृष्ट आयु का बन्ध किया था । यह राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर आये महावीर के समवसरण में सपरिवार गया था। वहाँ इसने और इसके अक्रूर, वारिषेण, अभयकुमार आदि पुत्रों तथा उनकी रानियों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया। इसके प्रभाव से इसका सातवें नरक का आयुबन्ध प्रथम नरक संबंधी चौरासी हजार वर्ष की स्थिति में बदल गया था। इसे तीर्थकर प्रकृति का बन्ध भी हुआ था। वीर के समवसरण में गौतम गणधर से इसे चारों अनुयोगों का ज्ञान हुआ। पहले किये हुए बन्ध के अनुसार यह मरकर प्रथम नरक गया और वहां से निकलकर यह उत्सपिणी काल में भरतक्षेत्र का महापद्म नामक प्रथम तीर्थङ्कर होगा। दूसरे पूर्वभव में यह खदिरसार नामक भील था। इस पर्याय से मुक्त होकर यह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था। मपु०७४.३८६-४५३, ७५.२०-२५, ३४, ७६.४१, पपु० २.७१, हपु० २.७१, १३६१४०, १४८, पापु० १.१०१-१०३, २.११, ८७, ९६, वीवच० १९.१५४-१५७
(२) अयोध्या नगरी के राजा रत्नवीयं का सेनापति । अयोध्या का चोर रुद्रदत्त चोरी के अपराध में पकड़े जाने पर इसी सेनापति के द्वारा मारा गया था। हपु०१८,९६-१०१
(३) अनागत प्रथम तीर्थङ्कर का जीव । मपु० ७६.४७१ श्रेणीचारण-एक ऋद्धि । इस ऋद्धि के प्रभाव से विद्याधर आकाश में
श्रेणीबद्ध होकर निराबाघ गमन किया करते हैं । मपु० २.७३ श्रेणीबद्धविमान-अच्युत स्वर्ग के विमान । इनका उपयोग इन्द्र करते
है । अच्युत स्वर्ग में ऐसे पैंतालीस विमान होते हैं । मपु० १०.१८७
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