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शब्दवरसेन- शर्करा प्रभा
शब्दवरसेन प्रयोध्या नगरी का एक राजपुत्र ० ६३.१६२, ० शक्तिवर सेन
शब्दानुपात - देशव्रत के पाँच अतिचारों में चौथा अतीचार । निश्चित मर्यादा के बाहर अपना शब्द भेजना या बातचीत करना शब्दानुपात कहलाता है । हपु० ५८. १७८
शमात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १६३
शमी - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत बृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६१ शम्याताल — तालगत गन्धर्व के बाईस भेदों में पाँचवाँ भेद । हपु० १९.१५०
· शय्या- परीषह— बाईस परीषहों में एक परीषह । ध्यान और अध्ययन में हुए श्रम के कारण रात्रि में भूमि में एक करवट से बिना कुछ ओढ़े हुए अन्य निद्रा लेना सय्या परोष है। मुनि इसे सहर्ष सहते हैं। उनके मन में इस परह को जीतने में कोई विकार पैदा नहीं होता पु० ३६.१२०, हपु० ६३.१०२
शर - (१) कुरुवंश का एक राजा । यह प्रतिशर का पुत्र और पारशर का पिता था । हपु० ४५.२९
(२) राम के समय का एक शस्त्र (बाण) । पपु० १२.२५७ शरण्य - भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम | मपु० २४.३७, २५.१३६
शरद्वीप - कुरुवंशी एक राजा । यह पारशर का पुत्र और द्वीप राजा का पिता था । पु० ४५.२९-३०
शरभ - ( १ ) एक जंगली जानवर अष्टापद । इसकी पीठ पर भी चार पैर होते हैं। आकाश में उछलकर पीठ के बल नीचे गिरने पर भी पृष्ठवर्ती पैरों के कारण इसे कोई चोट नहीं लगती । यह सिंह को
भी परास्त कर देता है । मपु० २७.७०, ३१.२५, पपु० १७.२६० (२) लक्ष्मण का एक पुत्र । पपु० ९४.२८, १०२.१४६
- शरभरथ – इक्ष्वाकुवंशी एक राजा । यह कुन्युभक्ति राजा का पुत्र तथा द्विरदरथ का पिता था । पपु० २२.१५७
शरासन - (१) भार्गवाचार्य की वंश परम्परा में हुआ एक राजा । यह राजा सरवर का पुत्र था। हपु० ४५.४६
(२) राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का चौबीसवाँ पुत्र । पापु० ८. १९५
शरीर -- सप्तधातु से निर्मित देह । यह जड़ है। चैतन्य इसमें उसी प्रकार रहता है जैसे म्यान में तलवार व्रत, ध्यान, तप, समाधि आदि की साधना का यह साधन है। सब कुछ होते हुए भी यह समाधिमरणपूर्वक त्याज्य है । यह पाँच प्रकार का होता है । उनके नाम 8-दारिक, वैकिविक आहारक, तंजस और कार्माण मे वारीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। आदि के तीन शरीर असंख्यात गुणित तथा अन्तिम दो अनन्त गुणित प्रदेशोंवाले हैं । अन्त के दोनों शरीर जीव के साथ अनादि से लगे हुए हैं। इन पाँचों में एक समय में एक साथ एक जीव के अधिक से अधिक चार शरीर हो सकते हैं । मपु०
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जैन पुराणको ३९७
५.५१-५२, २२६, २५०, १७.२०१-२०२, १८.१००, पपु० १०५. १५२-१५३, वीवच० ५.८१-८२
शरीरजन्म-जीवों के जन्म के दो भेद हैं- १. शरीरजन्म और २० संस्कारजन्म । इनमें जीव की वर्तमान पर्याय में प्राप्त शरीर का क्षय होकर आगामी पर्याय में शरीर की प्राप्ति को शरीरजन्म कहते हैं । मपु० ३९.११९-१२०
शरीरमरण - जीवों का मरण दो प्रकार का माना गया है—शरीरमरण और संस्कारमरण । इनमें अपनी आयु के अन्त में देह का विसर्जन शरीर मरण है । मपु० ३९.११९-१२२
शर्कराप्रभा -- ( १ ) शर्करा के समान प्रभाधारी नरक यह सात नरकों में दूसरा नरक है । इसका अपर नाम वंशा है । इसके ग्यारह प्रस्तारों में ग्यारह इन्द्रक बिल हैं-स्तरक, स्तनक, मनक, वनक, घाट, संघाट, जिल्ला, जिह्निक, लोल लोलुप और स्तनको श्रेणीबद्ध बिली की संख्या निम्न प्रकार होती है-
इनके
नाम इन्द्रक चारों दिशाओं में
स्तरक
स्तनक
मनक
वनक
घाट
संभाट
जिल्ल
जिह्निक
लोल
लोलुप
स्तनलोलुप
योग
नामक इन्द्रक बिल
१. स्तरक
२. स्तनक
३. मनक
४. वनक
५. घाट
१४४
१४०
१३६
१३२
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१२८
१२४
१२०
११६
११२
१०८
१०४
१३६४
विदिशाओं में
१४०
१३६
१३२
१२८
१२४
१२०
११६
११२
१०८
१०४
१००
१३२०
यहाँ प्रकीर्णक बिल २४, ९७, ३०५ होते हैं। इस प्रकार कुल बिल यहाँ पच्चीस लाख हैं। तरक इन्द्र बिल के पूर्व में अनिच्छ, पश्चिम में महा अनिच्छ, दक्षिण में विष्य और उत्तर में महाविष्य नाम के महानरक हैं । पच्चीस लाख बिलों में पाँच लाख बिल असंख्यात योजन विस्तारवाले होते हैं । इन्द्रक बिलों का विस्तार क्रम निम्न प्रकार है
२६८४
कुल
२८४
२७६
२६८
२६०
२५२
२४४
२३६
२२८
२२०
२१२
२०४
विस्तार प्रमाणं
३२. ६०.३३३३ योजन
३२.१६६६६३ योजन ३१.२५.००० 37 ३०.३३.३३३३
२९.४१.६६६३
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