________________
विनयधर-विष्य
३७२ : मेन पुराणकोश
(२) एक श्रावक । राजा श्रीवधित को राजा सिंहेन्द्र के नगर में आने की सूचना इसी ने दी थी । पपु० ८०.१८४-१८५ विनयधर-लोहाचार्य के बाद हुए अंग और पूर्वी के एक देश ज्ञाता
चार मुनियों में प्रथम मुनि । श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंदत्त इनके
पश्चात् हुए थे। वीवच० १.५०-५२ विनयन्धर-(१) इनका अपर नाम विनयधर था। हपु० ६६.२५, वीवच० १.५०-५२, दे० विनयधर
(२) जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में श्रीपुर नगर के राजा वसुन्धर का पुत्र । राजा वसुन्धर इसे राज्य सौंपकर संयमी हुए थे। मपु० ६९.७४-७७
(३) एक मुनीन्द्र । ७५.४१२
(४) प्रभाकरी नगरी के एक योगी। मपु० ७.३४ विनयमिथ्यात्व-मिथ्यात्व के अज्ञान, संशय, एकान्त, विपरीत और
विनय इन पाँच भेदों में पाँचवाँ भेद । मन, वचन और काय से सभी देवों को नमन करना, सभी पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनय
मिथ्यात्व कहलाता है । मपु० ६२.२९७, ३०२ ।। विनयवती-(१) सेठ वैश्रवणदत्त की स्त्री। विनयधी को यह जननी थो । मपु० ७६.४७-४८
(२) गोवर्धन नगर के श्रावक जिनदत्त की स्त्री। यह आयिका होकर तथा तप करते हुए मरकर स्वर्ग में देव हुई थी। पपु०
२०.१३७-१४३ विनयविलास-एक निग्रन्थ मुनि । ये प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन
और रानी धरणी के छठे पुत्र थे। सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान् इनके बड़े भाई और जयमित्र छोटा भाई था। ये सातों भाई प्रीतिकर मुनिराज के केवलज्ञान के समय देवों का आगमन देखकर बोध को प्राप्त हुए। ये पिता के साथ धर्माराधन करने लगे थे। राजा श्रीनन्दन ने डमरमंगल नामक एक मास के बालक को राज्य देकर अपने इन सातों पुत्रों के साथ प्रीतिकर मुनिराज से दीक्षा ली थी। इन्होंने केवलज्ञान प्रकट किया और मोक्ष गये । ये सातों मुनि सप्तर्षि कहलाये । शत्रुघ्न ने इन सप्तर्षियों की प्रतिमाएँ मथुरा
में स्थापित कराई थीं । पपु० ९२.१-४२, ८१-८२ विनयश्री-(१) कृष्ण की पटरानो-गान्धारी के पांचवें पूर्वभव का जीव ।
यह इस भव में कौशल देश की अयोध्या नगरी के राजा रुद्र की रानी थी। इसने सिद्धार्थवन में अपने पति के साथ बुद्धार्थ अपर नाम श्रीधर मुनि को आहार दिया था। इस दान के प्रभाव से यह उत्तर- कुरु में तीन पल्य की आयु धारिणी आर्या हुई थी। मपु०७१.४१६- ४१८, हपु० ६०.८६-८८
(२) कृष्ण की आठवीं पटरानी पद्मावती के आठवें पूर्वभव का जीव। यह भरतक्षेत्र के उज्जयिनी नगरी के राजा अपराजित और रानी विजया की पुत्री थी। इसका विवाह हस्तिनापुर के राजा हरिषेण से हुआ था । इसने पति के साथ वरदत्त मुनिराज को आहार दिया था । अतः मरकर इस बाहारदान के फलस्वरूप यह हैमवत क्षेत्र
में एक पल्य की आयु लेकर आर्या हुई थी। मपु०७१.४४३-४४५ हपु० ६०.१०४-१०७
(३) चम्पानगरी के सेठ वैश्रवणदत्त तथा उसकी स्त्री विनयवती की पुत्री। केवली जम्बस्वामी को यह गृहस्थावस्था की स्त्री थी।
मपु० ७६.४७-५० विनयसम्पन्नता-तीर्थकर-प्रकृति के बन्ध की कारणभूत सोलह भावनाओं
में दूसरी भावना । ज्ञान आदि गुणों और उनके धारकों में कषायरहित परिणामों में आदरभाव रखना विनयसम्पन्नता-भावना कहलाती
है। मपु० ६३.३२१, हपु० ३४.१३३ । विनया-सुराष्ट्र देश में अजाखुरी नगरी के राजा राष्ट्रवर्धन की रानी ।
नमुचि इसका पुत्र तथा सुसीमा पुत्री थी । हपु० ४४.२६-२७ विनिहात्र-जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में विध्याचल के ऊपर
स्थित एक देश । भरतेश के छोटे भाई ने इसका परित्याग करके
वृषभदेव से दीक्षा ली थी । हपु० ११.७४-७६ विनीत-तीर्थङ्कर वृषभदेव के चवालीसवें गणधर । हपु० १२.६८ विनीता-जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में कौशल देश की नगरी
अयोध्या । प्रजा के विनयगुण के कारण यह इस नाम से विख्यात थी। इसका अपर नाम साकेत था। तीर्थङ्कर बृषभदेव, अनन्तनाथ, चक्रवर्ती भरतेश और सगर, आठवें बलभद्र और नारायण की यह जन्मभूमि है। यह नगरी नौ योजन चौड़ी तथा बारह योजन लम्बी है। मपु०१२.७६-७८, ३४.१ पपु० २०.३६-३७, ५०, १२८-१२९, २१८-२२२, हपु० ९.४२, ११.५६, पापु० २.२४६, वीवच०
२.५९ विनेता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४१ विनयचरी-विजया पर्वत पर दक्षिणश्रेणी की अट्ठाईसवीं नगरी।
मपु० १९.४९, ५३ विनयजनताबन्धु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.१२५ विनोद-राजगृह नगर के बह्वाश और उसकी स्त्री उल्का का पुत्र ।
इसकी स्त्री समिधा के दुराचरण से यह मरा और मरकर शालवन में
भैंसा हुआ । पपु० ८५.६९-७८ विन्दु-संगीत सम्बन्धी संचारी पद के छः अलंकारों में तीसरा अलं
कार । पपु० २४.१७ विनुसार-हरिवंशी राजा वप्रथु का पुत्र । यह देवगर्भ का पिता था ।
हपु०१८.१९-२० बिन्ध्य-(१) दूसरी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में तरक इन्द्र बिल की दक्षिणदिशा में स्थित महाभयानक नरक । हपु० ४.१५३
(२) विंध्याचल पर्वत । अभिचन्द्र राजा ने इसी पर्वत पर चेदिराष्ट्र की स्थापना की थी। इस पर्वत के वन हाथी, सिंह और व्याघ्रों से युक्त थे । इसकी चोटियाँ ऊँची थी। विद्याधर यहाँ विद्याओं को सिद्ध करते थे। महर्षि विदुर का आश्रम इसी वन में था। दिग्विजय के समय भरतेश के सेनापति ने इस प्रदेश को जीता था। मपु०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org