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२० जैन पुराणको
पुत्र हुआ, दूसरे पूर्वभव में माहेन्द्र स्वर्ग में सामानिक जाति का देव और वहाँ से न होकर प्रथम पूर्वभय में यह हस्तिनापुर में राजा गंगदेव और उसकी रानी नन्दयशा का गंगरक्षित नाम का पुत्र हुआ था । हपु० ३३.९७-९८, १३०, १३३, १४०-१४३ सुदृष्टि सेठ के घर उसकी अलका सेठानी द्वारा इसका पालन किया गया था । इसकी बत्तीस स्त्रियाँ थीं । अन्त में यह नेमिनाथ के समवसरण में उनसे धर्म श्रवण कर दीक्षित हो गया था । गिरिनार पर्वत से इसने मोक्ष प्राप्त किया था । हपु० ५९.११४- १२४, ६५.१७ अनीकपालक- वसुदेव और देवकी का चौथा पुत्र । इसका पालन सुदृष्टि सेठ ने किया था । इसकी बत्तीस स्त्रियाँ थीं । अरिष्टनेमि के समवसरण में जाकर और उनसे धर्मोपदेश सुनकर यह दीक्षित हो गया था। इसकी मुक्ति गिरिनार पर्वत पर हुई थी । मपु० ७१.२९३ २९६, हपु० ३३.१७०, ५९.११५-१२०, ६५.१६-१९ अनीकिनी सेना का एक भेद । इसमें २१८७ रथ २१८७ हाथी १०९३५ प्यादे और ६५६१ घोड़े होते हैं । पपु० ५६.२-९ अनीवृक्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। ०२५.१८७ अनीश्वर - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१०३ अनुकम्मा- -सम्यग्दर्शन का चतुर्थ गुण । मपु० ९.१२३ दे० सम्यक्त्व अनुकूल – पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त चक्रवर्ती के पुत्र सागरदत्त
का सेवक | सागरदत्त को मेघों का सौन्दर्य देखने के लिए इसी ने आग्रह किया था । मपु० ७६.१३९- १४६
अनुकोशा — दारुग्रामवासी विमुचि ब्राह्मण की भार्या, अतिभूति की जननी । इसने कमलकान्ता आर्यिका से दीक्षित होकर तप धारण कर लिया था । शुभ ध्यान पूर्वक महानिःस्पृह भाव से मरण कर यह ब्रह्मलोक में देवी हुई थी तथा यहाँ से च्युत हो चन्द्रगति विद्याधर की पुष्पवती नाम की भार्या हुई। ०३०.११६ १२४-१२५, १२४ • अनुत्तर - ( १ ) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४३ (२) यह स्वर्ग से च्युत होकर लंका में राक्षसवंश में उत्पन्न हुआ। यह माया और पराक्रम से सहित विद्याबल और महाकान्ति का धारी तथा विद्यानुयोग में कुशल था । अर्हद् भक्ति के पश्चात् यही लंका का स्वामी हुआ । पपु० ५.३९६-४००
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(३) शतार स्वर्ग में उत्पन्न भावन वणिक् का पुत्र हरिदास का जीव । पु० ५.९६ - ११०
(४) नव ग्रैवेयकों के आगे स्थित नौ अनुदिशों के ऊपर अवस्थित पाँच विमान । इनके नाम विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि हैं । इनके निवासी देव कल्पातीत कहे जाते हैं । पपु० १०५.१७०-१७१ ० ३.१५०, ६.४०
(५) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१३३
(६) भरतेश के सिंहासन का नाम । मपु० ३७.१५४ अनुसरोपपादिकवांग-नवम अंग इसमें बानवें सास चवालीस हजार पद हैं । इन पदों में स्त्री, पुरुष और नपुंसक के भेद से तोन प्रकार
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अनकपल अनुपर
के तिर्यंच और तीन प्रकार के मनुष्यकृत तथा स्त्री और पुरुष के भेद से दो प्रकार के देवकृत इस प्रकार कुल आठ चेतनकृत तथा दो अचेतनकृत-कुष्टादि शारीरिक तथा शिला आदि का पतन, इस प्रकार कुल दश प्रकार के उपसर्ग सहन कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले दस मुनियों का वर्णन किया गया है । मपु० ३४.१४३ हपु० १०.४०-४२, दे० अंग
अनुदात्त - स्वर का दूसरा भेद । यह ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत होता है । हपु ०
० १७.८७
अनुदिश - ( १ ) ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों के मध्य स्थित नौ विमान । इनके नाम है- १. आदित्य, २. अ३ि. अभिमानी ४. बच ५. वैरोचन ६. सौम्य ७. सौम्यरूपक ८ अंक और ९. स्फुटिक । इन विमानों के निवासी देवकल्पातीत कहे जाते है ० १.१५०. ६.३९-४०, ६३-६४ (२) समवसरण में स्थित नौ स्तूप । इन स्तूपों में सभी अनुदिश विमान प्रत्यक्ष दीखते हैं । हपु० ५७.१०१
(३) कठिन तप से प्राप्य अच्युत एवं आनत स्वर्गों का इस नाम रानी सुप्रभा इसी विमान में देव हुई थी । मपु०
का एक विमान । ७.४४, ६३.२४ अनुद्धर - विद्याधरों का स्वामी । यह राम-रावण युद्ध के समय राम के पक्ष का व्याघ्ररथारोही योद्धा था । पपु० ५८.३-७
अनुद्धरा - महातपस्वी श्रमण मतिवर्धन के संघ की धर्मध्यान परायणा श्रेष्ठ गणिनी । पपु० ३९.९५-९६
अनुन्दरी (१) रत्नसंचय नगर के राजा विश्वदेव की मार्या मधु ७१.३८७ दे० अनुन्धरी
(२) चन्द्रपुर के राजा महेन्द्र की भार्या म० ७१.४०५-४०६ ३० अनुधरी
अनुन्धर -- भरतक्षेत्र में स्थित अरिष्टपुर नगर के राजा प्रियव्रत और उसकी प्रथम रानी कांचनाभा का पुत्र । इसके रत्नरथ और विचित्ररथ नाम के दो भाई और थे जो राजा की दूसरी रानी पद्मावती के पुत्र थे । श्रीप्रभा नाम की कन्या के कारण रत्नरथ और इसके बीच युद्ध हुआ । पराजित हो जाने से इसे रत्नरथ द्वारा देश से निकाल दिया गया था। इसके बाद यह जटाजूटधारी तापस बन गया। चिरकाल तक राज्य भोगकर रत्नरथ और विचित्ररथ दोनों तो मरे और सिद्धार्थ नगर के राजा क्षेमंकर के पुत्र देशभूषण और कुलभूषण हुए । इधर यह तापस विलासिनी मदना की पुत्री नागदत्ता द्वारा प्रेमपाश में फँसाया गया और राजा द्वारा अपमानित हुआ । अन्त में मरकर यह वह्निप्रभ नामक देव हुआ । अवधिज्ञान से क्षेमंकर के देशपुत्र भूषण और कुलभूषण को अपना पूर्वभव का वैरी जान कर यह उनके समीप उपसर्ग करने गया था किन्तु उनके चरमशरीरी होने के कारण तथा राम और लक्ष्मण द्वारा उपसर्ग दूर किये जाने से देशभूषण और कुलभूषण तो केवली हुए और यह इन्द्र के भय से शीघ्र ही तिरोहित हो गया था । पपु० ३९.१४८-२२५
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