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जैन पुराणकोश : ३३३
लंकाशोक-लक्ष्मण
विद्याधर यहाँ रहते थे। रावण के पूर्वज मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम ने द्वीप की रक्षार्थ यह नगरी दी थी। यह बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी है। इसमें बत्तीस गोपुर और एक रत्नकोट है । यह मेरु के समान ऊँची तथा वनोपवनों से अलंकृत है। रावण यहाँ का राजा था। मपु० ६८.२५६-२५७, २९५-२९८,
पपु० ५.१४९-१५८, ४३.२१ लंकाशोक-लंका का एक राजा । लंका में इसके पूर्व चण्ड ने और बाद
में मयूरवान् ने शासन किया था । पपु० ५.३९७ लंकासुन्दरी-लंका के सुरक्षाधिकारी वज्रमुख की पुत्री । हनुमान ने युद्ध
में इसके पिता को मार डाला था। पितृ-वध से कुपित होकर इसने प्रथम तो हनुमान से युद्ध किया किन्तु बाद में कामवाणों से हनुमान के हृदय में प्रवेश कर गई। इसने हनुमान को मारने के लिए उठाई शक्ति संहृत कर ली थी। मुग्ध होकर इसने स्वनामांकित वाण भेजा। हनुमान उसे पढ़कर इसके पास आये और इसके प्रेमपाश में आबद्ध हो गये थे । हनुमान के समझाने से यह पिता के मरण का शोक भूल गयी थी । पपु० ५२.२३-६७ लकुच-एक प्रकार का फल । वर्तमान का यह लीची फल कहा जा
सकता है। भरतेश ने वृषभदेव की पूजा में अन्य फलों के साथ इस फल का भी व्यवहार किया था । मपु० १७.२५२ लकुट-एक शस्त्र-लाठी। चौथे मनु क्षेमन्धर ने सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं से अपनी रक्षा करने के लिए प्रजा को इसका उपयोग बताया
था। मपु० ३.१०५ लक्षण-(१) अष्टांग निमित्त ज्ञान का छठा अंग । इससे शारीरिक चिह्न
देखकर मनुष्य के ऐश्वयं एवं दारिद्रय आदि को बताया जाता है। तीर्थकरों के शरीर पर स्वस्तिक आदि एक सौ आठ लक्षण होते हैं । मपु० १५.३७-४४, ६२.१८१, १८८, हपु० १०.११७ दे० अष्टांगनिमित्तज्ञान
(२) परमेष्ठियों के गुण रूप में कहे गये सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इसमें मुनि जिनेन्द्र के लक्षणों का चिन्तन करते हुए तप
करता है । मपु० ३९.१६३-१६६, १७१ लक्षण्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४४ लक्षपर्वा-सोलह विद्या निकायों की एक विद्या । धरणेन्द्र ने यह विद्या
नमि और विनमि विद्याधरों को दी थी । हपु० २२.६७ लक्ष्मण (१) दुर्योधन का पुत्र। इसने युद्ध में अभिमन्यु का धनुष तोड़ा था। पापु० १९.२२६
(२) अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं आठवें वासुदेव-नारायण । इन्होंने कोटिशिला घुटनों तक उठाई थी। ये तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत के तीर्थ में हुए थे। वाराणसी नगरी के राजा दशरथ इनके पिता और रानी कैकेयी माँ थी। ये माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन विशाखा नक्षत्र में जन्मे थे । इनकी कुल आयु बारह हजार वर्ष थी। इसमें कुमारकाल का समय सौ वर्ष, दिग्विजय का समय चालीस वर्ष और राज्यकाल एक हजार
अठारह सौ बासठ वर्ष रहा । ये पन्द्रह धनुष ऊँचे थे। शरीर बत्तीस लक्षणों से विभूषित था। ये वजवृषभनाराच संहनन और समचतुरस्रसंस्थान के धारी थे। इनकी नील कमल के समान शारीरिक कान्ति थी। राम इनके बड़े भाई और भरत तथा शत्रुघ्न छोटे भाई थे। यज्ञ की सुरक्षा के लिए राजा जनक के आमन्त्रण पर राजा दशरथ ने पुरोहित से परामर्श करके राम के साथ ससैन्य इन्हें भेजा था। वहाँ से लौटकर दोनों भाई सीता सहित अयोध्या आये । अयोध्या में राजा दशरथ ने पृथिवीदेवी आदि सोलह कन्याओं के साथ इनका विवाह किया था। दशरथ ने इन्हें युवराज बनाकर राम के साथ बनारस भेजा था। रावण द्वारा सीता-हरण किये जाने पर शोकसन्तप्त राम को इन्होंने धैर्य बंधाकर सीता वापस लाने का उपाय करने को कहा था । लंका-विजय के पूर्व इन्होंने बाली को मारा था। जगत्पाद पर्वत पर सात दिन निराहार रहकर इन्होंने प्रज्ञप्ति-विद्या सिद्ध की थी। रावण से युद्ध करने ये राम के साथ लंका गये थे । लंका पहुँचने पर सुग्रीव और अणुमान् इन्हें और राम को अपने द्वारा सिद्ध की हुई गरुडवाहिनी, सिंहवाहिनी, बन्धमोचिनी और हननावरणी ये चार विद्याएं दी थीं। रावण के युद्धस्थल में आने पर ये विजयपर्वत-हाथी पर सवार होकर युद्धार्थ निकले थे। रावण के मायामय युद्ध करने पर इन्होंने भी इन्द्रजीत के साथ मायामय युद्ध किया था। रावण द्वारा नारायण पंजर में घेर लिये जाने पर अपनी विद्या से ये उस पंजर को तोड़कर बाहर निकल आये थे। रावण ने इनके ऊपर चक्र भी चलाया था किन्तु वह इनके दाहिने हाथ पर आकर ठहर गया था। इन्होंने इसी चक्र से रावण का सिर काट डाला था । विजयोपरान्त इन्होंने विभीषण को लंका का राजा बनाया और वहाँ की समस्त विभूति उसे दे दी। लंका से लौटकर राम के साथ ये सुन्दरपीठपर्वत पर ठहरे थे। यहाँ देव और विद्याधर राजाओं ने राम के साथ इनका अभिषेक किया था। यहीं इन्होंने कोटिशिला उठाई थी। यहाँ के निवासी यक्ष सुनन्द ने प्रसन्न होकर इन्हें सौनन्दक नाम की तलवार दी थी। प्रभासदेव को वश में करने से उससे सन्तानक माला, सफेद-छत्र और आभूषण प्राप्त हुए थे। इन्होंने सोलह हजार पट्टबन्ध राजाओं और एक सौ दस नगरियों के स्वामी विद्याधर राजाओं को अपने अधीन किया था। इनकी यह विजय बयालीस वर्ष में पूर्ण हुई थी। इस विजय के पश्चात् ये अयोध्या लौट आये थे। पृथिवीसुन्दरी आदि इनकी सोलह हजार रानियाँ थीं। सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, सौनन्दक खड्ग, अधोमुखी शक्ति, शारंग धनुष, पांचजन्य शंख और कौस्तुभ महामणि ये सात इनके रत्न थे। इनके इन रत्नों की एक-एक हजार यक्ष देव रक्षा करते थे। शिवगुप्त मुनिराज के समझाने पर भी ये भोगों में आसक्त रहे। निदान-शल्य के कारण सम्यग्दर्शन आदि कुछ ग्रहण न कर सके । पृथिवीचन्द्र इनका पुत्र था । असाध्य रोग से इनका माघ कृष्ण अमावस्या के दिन मरण हुआ। ये मरकर पंकप्रभा पृथिवी में गये । राम ने राज्यलक्ष्मी इन्हीं के पुत्र
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