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१६ : जैन पुराणकोश
अनन्तग-असन्तविजय
पूर्वक गर्भ में आये थे। ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के पूष योग में जन्म दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है तथा इससे समस्त पदार्थों लेकर अभिषेकोपरान्त ये इन्द्र द्वारा 'अनन्तजिन' नाम से अभिहित का एक साथ दर्शन होता है। इसके लिए मंत्रों में 'अनन्तदर्शनाय किये गये थे। इनका जन्म तोयंकर विमलनाथ के बाद नौ सागर नमः' इस पीठिका मंत्र का व्यवहार होता है । मपु० २०.२२२-२२३, और पौन पल्य बीत जाने पर तथा धर्म को क्षीणता का आरम्भ होने ४०.१४, ४२.९९ पर हुआ था। इनकी आयु तीस लाख वर्ष और शारीरिक अवगाहना (२) नौ लब्धियों में इस नाम की एक लब्धि । मपु० २०.२६५-. पचास धनुष थी। सर्व लक्षणों से युक्त इनका शरीर स्वर्ण-वर्ण के समान था। सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राज्याभिषेक ___ अनन्तदीप्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० प्राप्त किया था, और राज्य करते हुए पन्द्रह लाख वर्ष के पश्चात् २५.११३ उल्कापात देखकर ये बोधि प्राप्त होते ही अपने पुत्र अनन्तविजय को अनन्तबल-सुवर्ण पर्वत पर विराजित एक केवलज्ञानी मुनि । मेरूराज्य देकर तृतीय कल्याणक पूजा के उपरान्त सागरदत्त नामा पालकी वन्दना से लौटते समय रावण ने इन्हीं से परस्त्रीत्यागवत ग्रहण में बैठे और सहेतुक वन गये। वहाँ ये ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी की सायं किया था । पपु० १४.१०, ३७०-३७१ वेला में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। इन्होंने प्रथम अनन्तमति–एक मुनि का नाम । प्रथम नरक से निकलने के बाद पारणा साकेत में की। विशाख नाम के राजा ने आहार दे पंचाश्चर्य विजयार्ध पर्वत पर राजा श्रीधर्म और उनकी रानी श्रीदत्ता से उत्पन्न प्राप्त किये । सहेतुक वन में ही छदमस्थ अवस्था में दो वर्ष की तपस्या श्रीदाम नाम का विभीषण का जीव मुनि इनका ही शिष्य बनकर के पश्चात् अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या की ब्रह्म स्वर्ग में देव हुआ था । हपु० २७.११३-११७ सायं वेला में रेवती नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान हुआ। इनका चतुर्थ अनन्तमती-(१) राजा नन्दिषेण की रानी, मणिकुण्डल नामक देव के कल्याणक सोत्साह मनाया गया। इनके जय आदि पचास गणधर थे जीव वरसेन की जननी । मपु० १०.१५० ।। और संघ में छ्यासठ हजार मुनि एक लाख आठ हजार आयिकाएँ, (२) एक आयिका । राजा प्रजापाल की पुत्री यशस्वती ने मामा दो लाख श्रावक, तथा चार लाख श्राविकाएँ थीं। सम्मेदगिरि के द्वारा किये गये अपने अपमान से लज्जित होने से उत्पन्न वैराग्य पर इन्होंने एक मास का योग निरोध किया । छः हजार एक के कारण इन ही से संयम धारण किया था। मपु० ४६.४५-४७ सौ मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर चैत्र मास की अमावस्या (३) कौशाम्बी के राजा महाबल और उनकी रानी श्रीमती की के दिन रात्रि के प्रथम प्रहर में ये परम पद को प्राप्त हुए। मपु. पुत्री श्रीकान्ता की सहगामिनी । मपु० ६२.३५१-३५४ ६०.१६-४५, पपु० २०.१४, १२०, हपु० ६०.१५३-१९५, ३४१- (४) चक्रवर्ती भरत की रानी, पुरूरवा भील के जीव मरीचि की ३४९
जननी । मपु० ७४.४९-५१ (६) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०९
अनन्तमित्र-उग्रसेन के चाचा शान्तन का पाँचवाँ पुत्र, महासेन, शिवि, अनन्तग-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२९ स्वस्थ और विषद इन चारों भाइयों का अनुज । हपु० ४८.४० अनन्त चक्षुष्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०२५.८१ अनन्तरय-विनीता (अयोध्या) के राजा अनरण्य और उसकी महारानी अनन्त चतुष्टय-घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न अनन्तदर्शन, अनन्त
पृथिवीमती का बड़ा पुत्र, राजा दशरथ का बड़ा भाई । यह पिता के ज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य नाम के चार गुण । ये अर्हन्त
साथ दीक्षित हुआ और अत्यन्त दुःसह बाईस परीषहों से क्षुब्ध और सिद्ध परमेष्ठियों को प्राप्त होते हैं। मपु० २१.११४, १२१
न होने से अनन्तवीर्य इस संज्ञा से अभिहित हुआ। पपु० २२. १२३
१६०-१६९ अनन्तजित्-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० अनन्तधामषि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.६९, १०४
२५.१८६ (२) अनन्त संसार के जेता, मिथ्याधर्मरूपी अन्धकार को नष्ट
अनन्तद्धि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० करने के लिए सूर्यस्वरूप चौदहवें तीर्थकर । हप० १.१६
अनन्तलवण-अनङ्गलवण का पुत्र । राम ने अनंगलवण को राजपद अनन्तज्ञान-(१) सिद्ध जीव के आठ गुणों में एक गुण-संसार के समस्त देना चाहा था किन्तु उसके दीक्षित होने के विचार को जानकर
पदार्थों को एक साथ जाननेवाला ज्ञान । इसके लिए मंत्रों में "अनन्त- उन्होंने इसे ही राज्य प्रदान किया था। पपु०११९.१-३ ज्ञानाय नमः" पीठिका मंत्र व्यवहृत होता है । यह ज्ञानावरण कर्म अनन्तविजय-ऋषभदेव का पुत्र, भरत चक्रवर्ती का छोटा भाई, चरमके क्षय से उत्पन्न होता है । मपु० २०.२२२-२२३, ४०.१४, ४२. शरीरी । ऋषभदेव ने इसे चित्रकला का उपदेश दिया था। मपु० ९८ दे० सिद्ध
१६.२, ४, १२१, ३१० भरतेश के द्वारा अधीनता स्वीकार करने (२) नौ लब्धियों में इस नाम की एक लब्धि । मपु० २०.२६५- के लिए कहे जाने पर अपना स्वाभिमान सुरक्षित रखने की दृष्टि से
यह दो क्षित हो गया था, तथा गणधर होने के पश्चात् इसने मुक्ति अनन्तदर्शन-(१) सिद्ध (परमेष्ठी) के आठ गुणों में एक गुण । यह प्राप्त की थी। मपु० १६.२, ४, १२१, ३१०, ३४.१२६, ४७.
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