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३२० : जैनपुरामको
रत्नतेज - हेमांगद देश के राजपुर नगर का एक वैश्य । इसकी स्त्री रत्नमाला और पुत्री अनुपमा थी । मपु० ७५.४५०-४५१ रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । इनमें सम्यग्दर्शन को ज्ञान और चारित्र का बीज कहा है । मपु० ४.१५७, ११.५९, पपु० ४.५६, वीवच० १८.२-३, ६, १०-११ रत्नद्वीप - ( १ ) एक द्वीप। यह भारतीय रत्न-व्यवसाय का केन्द्र था । मपु० ३.१५९, ५९.१४८-१४९, पपु० १४.३५८
(२) भरत क्षेत्र का एक नगर । यह भानुरक्ष के पुत्रों द्वारा बसाया गया था । पपु० ५.३७३ रत्ननगर - विदेहक्षेत्र का एक नगर । रथनपुर नगर का राजा इन्द्र पूर्वभव में यहाँ उत्पन्न हुआ था । गोमुख और धरणी उसके मातापिता थे । उसका नाम सहस्रभाग था । पपु० १३.६०, ६६-६७ रत्नपटली - रत्ननिर्मित पिटारा वृषभदेव द्वारा उखाड़े गये केश समुद्र में क्षेपण करने के पूर्व इसी में रखे गये थे । इसका अपर नाम रत्नपुट था । मपु० १७.२०४, २०९, पपु० ३.२८४
रत्नपुर (१) वदेत्र का एक नगर यहाँ विद्याधर पुष्पोत्तर रहता था। राजा विद्यांग के पुत्र विद्यासमुद्घात यहाँ के नृप थे । राम और लक्ष्मण के समय यहाँ राजा रत्नरथ था । पपु० ६.७, ३९०, ९३.२२
(२) भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । सुलोचना के शील का परीक्षा के लिए सौघमं स्वर्ग से आयी देवी ने जयकुमार को अपना परिचय देते हुए स्वयं को इस नगर के राजा की पुत्री बताया था। मपु० ४७.२६१-२६२, पापु० ३.२६३ - २६४
(३) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ राजा मधु जन्मे थे । तीर्थंकर धर्मनाथ ने भी यहाँ जन्म लिया था । मपु० ५९. ८८, ६१.१३, १९, ६२.३२८, पपु० २०.५१
(४) पुष्करार्द्ध द्वीप के वत्सकावती देश का एक नगर । तीसरे पूर्वभव में तीर्थंकर वासुपूज्य यहाँ के राजा थे। इस पर्याय में उनका नाम पद्मोत्तर था । मपु० ५८. २-४
(५) जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र का एक नगर । भद्र और धन्य दोनों भाई बल के निमित्त से परस्पर लड़कर यहाँ मारे गये थे । मपु० ६३.१५७-१५९
(६) विजयार्ध की उत्तरश्र ेणी का साठवां नगर । मपु० १९.८७ (७) मलयदेश का एक नगर । बलभद्र राम तीसरे पूर्वभव में इसी नगर के राजा प्रजापति के पुत्र चन्द्रचूल थे । मपु० ६७.९०-९१, १४८-१४९
रत्नप्रभ - (१) विभीषण का एक विमान । राम की ओर से रावण की सेना से युद्ध करने विभीषण इसी विमान में गया था । पपु० ५८.२०
(२) गिरि को आग्नेय दिशा का एक कूट। यहाँ वैजयन्ती देवी रहती है । हपु० ५.७२५ रत्नप्रभा — अधोलोक की प्रथमभूमि, रूढ नाम धर्मा। इसके तीन भाग होते हैं -खर भाग, पंकभाग और अब्बहुल भाग। इन अंशों की क्रमशः मुटाई सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार होती
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रत्नतेन - रत्नमय-पूज
है। सरभाग के चित्र आदि सोलह भेद है। सरभान में अनुरकुरों को छोड़कर शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव रहते हैं। इनमें नागकुमारों के चौरागी लाल, गरुडकुमारों के बहत्तर लाख द्वीपकुमार उदधिकुमार, मेघकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विद्युत्कुमार इन छः कुमारों के छिहत्तर लाख तथा वायुकुमारों के छियानवे लाख भवन हैं । ये भवन इस भाग में श्रेणी रूप से स्थित है तथा प्रत्येक में एक-एक चैत्यालय है । इस खरभाग के नीचे पंकभाग में असुरकुमारों के चौंसठ लाख भवन हैं । खरभाग में राक्षसों को छोड़कर शेष सात प्रकार के व्यन्तर देव रहते हैं। पंकभाग में राक्षसों का निवास है। यहाँ राक्षसों के सोलह हजार भवन है भाग में ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन स्थान छोड़कर नारकियों के बिल हैं । इस पृथिवी के तेरह प्रस्तार और प्रस्तारों के तेरह इन्द्रक बिल हैं । इन्द्रक बिलों के नाम ये हैं सीमान्तक, नरक, रौरूक, भ्रान्त,
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उदभ्रान्त, असम्भ्रान्त, विभ्रान्त, त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त और विक्रान्त सीमान्त इन्द्रक बिल की पूर्व दिशा में काल, पश्चिम
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दिशा में महाकांक्ष, दक्षिणदिशा में पिपास और उत्तर दिशा में अतिपिपास ये चार महानरक हैं। इस पृथिवी के कुल तीस लाख बिल हैं जिनमें छः लाख बिल संख्यात योजन और चोबीस लाख बिल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। सीमन्तक इन्द्रक का विस्तार पैंतालीस लाख योजन होता है। इसी प्रकार नरक इन्द्रक का विस्तार चवालीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस और १ / ३ योजन प्रमाण, रौरव, इन्द्रक का तैंतालीस लाख, सोलह हजार, छः सौ सड़सठ और २ / ३ योजन प्रमाण, चौथे भ्रान्त इन्द्रक का बयालीस लाख पच्चीस हजार, उद्भ्रान्त इंद्रक का इकतालीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तेतीस और १ / ३ योजन प्रमाण, सम्भ्रान्त इन्द्रक का चालीस लाख इकतालीस हज़ार छः सौ छियासठ और २/३ योजन प्रमाण असम्भ्रान्त इन्द्रक का उनतालीस लाख पचास हजार योजन, विभ्रान्त इन्द्रक का अड़तीस लाख अठावन हजार तीन सौ तैतीस और १ / ३ योजन प्रमाण, नौवें त्रस्त इन्द्रक का सैंतीस लाख छियासठ हजार छः सौ छियासठ और २ / ३ योजन प्रमाण त्रसित इन्द्रक का छत्तीस लाख पचहत्तर हजार, वक्रान्त इन्द्रक का पैंतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तेतीस योजन और १ / ३ योजन प्रमाण तथा बारहवें अवक्रान्त इन्द्रक का विस्तार चौंतीस लाख इकानवें हजार छः सौ छियासठ और २ / ३ योजन प्रमाण तथा तेरहवें विक्रान्त इन्द्रक का विस्तार चौतीस लाख योजन होता है। इस पृथिवी के इन्द्रक बिलों की मुटाई एक कोश जीव बिलों की १ कोश और प्रकीर्णक बिलों की २ कोश प्रमाण है । इसका आकार त्रासन रूप होता है । यहाँ के जीवों की अधिकतम ऊँचाई सात धनुष, तीन हाथ, छ: अंगुल प्रमाण तथा आयु एक सागर प्रमाण होती है । मपु० १०.९० ९४, हपु० ४.६, ४३-६५, ७१, ७६७७, १५१-१५२, १६१, १७१-१८३, २१८, ३०५ रत्नभव्रमुख - भरतेश चक्रवर्ती का एक स्थपति रत्न । हपु० ११.२८ रत्नमय- पूजा – एक पूजा । इसमें रत्नों के अर्ध, गंगाजल, रत्नज्योति के
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