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३१६ पुरानकोश
योगविसौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५. १२५, १८८
योगविदांवर - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३७ योगसम्महदीसान्वय की एक क्रिया इससे निष्परिग्रही योगी तपोयोग को धारण कर शुक्लध्यानाग्नि से कर्म जलाते हुए केवलज्ञान प्रकट करता है । मपु० ३८.६२, २९५-३००
योगात्मा - भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३८, २५.१६४
योगी - भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २४.३७, २५.१०७
योगीन्द्र - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७० योगीश्वराति सोमेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१०७
योगेश्वरी - दशानन को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३३१-३३२ योजन — क्षेत्र का आठ हजार दण्ड प्रमित प्रमाण । यह अकृत्रिम रचना के मापने में दो हजार कोश का और कृत्रिम रचना के माप में चार कोश का होता है पु० ४.३६, ७.४६
योष -महाबुद्धि और पराक्रमधारी अमररक्ष के पुत्रों द्वारा बसाये गये दस नगरों में एक नगर इसका दूसरा नाम योधन था । पपु० ५.३७१-३७२, ६.६६
योधन- (१) लंका के आस-पास में स्थित एक सुन्दर द्वीप । पपु०
४८.११५-११६
(२) एक नगर । पपु० ५.३७१-३७२ दे० योध
योनि - वरुण लोकपाल को प्राप्त एक विद्या। रावण ने इस विद्या को छेदकर वरुण को जीवित पकड़ा था । पपु० १९.६१ यौधेय -- चार प्रकार की लिपियों में परिगणित नैमित्तिक लिपि का एक भेद । यह लिपि यौधेय देश में प्रचलित थी । इसलिए इसका नाम भी यौधेय पड़ा । केकया इसे जानती थी । पपु० २४.२६
योनि - जीवों की उत्पत्ति के स्थान । ये नौ प्रकार के होते हैं। वे हैंसचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत और संवृत - विवृत । मपु० १७.२१, हपु० २.११६
योषित — स्त्री । यह चक्रवर्ती भरतेश के चौदह रत्नों में एक रत्न था । मपु० ३७.८३-८६, हपु० २.८
यौवराज्य – गर्भान्वय को तिरेपन क्रियाओं में बयालीसवीं क्रिया । इसमें युवराज को अभिषेकपूर्वक राजपट्ट बाँधा जाता है। वह इससे युवराज - पद प्राप्त करता है । मपु० ३८.६१, २३१
र
- रंगतेज — सुजन देश के नगरशोभ नगर का नट । मदनलता इसकी स्त्री थी। इस नगर के राजा दृढ़मित्र ने भाई सुमित्र की पुत्री श्रीचन्द्रा के वर की खोज करने के लिए श्रीचन्द्रा के पूर्वभव का वृतान्त एक पटिये पर अंकित कराकर इसे दिया था। इसने हेमाभनगर में नृत्य का आयोजन किया । नृत्य देखने नंदाढ्य और जीवन्धर दोनों गये थे ।
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योगविद्- रक्षद्वीप
नंदाढ्य वहाँ पूर्वभव का स्मरण कर मूच्छित हुआ। जीवन्धर ने उससे उसकी मूर्च्छा का कारण जाना और अन्त में श्रीचन्द्रा का उससे विवाह करा दिया । मपु० ७५.४३८-४३९, ४६७-५२१ रंगसेना- भरतक्षेत्र में चन्दनवन नगर के राजा अमोघदर्शन की एक वेश्या । यह वेश्या कामपताका की जननी थी। इसको पुत्री के नृत्य पर राजकुमार चारुचन्द्र और ऋषि कौशिक दोनों मुग्ध थे । चारुचन्द्र के उसे विवाह लेने पर कौशिक ऋषि इसकी पुत्री को पाने के लिए राजा से याचना की थी और राजा ने कौशिक ऋषि के पास इसकी कन्या राजकुमार द्वारा विवाहे जाने की सूचना भिजवाई थी । इस समाचार से क्षुब्ध होकर कौशिक ऋषि ने सर्प बनकर मारने की धमकी दी, जिसे सुनकर राजा तापस हो गया था । हपु० २९.२४२३ दे० कौशिक
रक्तकम्बला - सुमेरु पर्वत के पाण्डुक वन की पाण्डुक, पाण्डुकम्बला, रक्ता और रक्तकम्बला इन चार शिलाओं में वायव्य-दिशा में स्थित चौथी शिला । यह लोहिताक्ष मणियों से निर्मित अर्द्धचन्द्राकार है । इसकी ऊँचाई आठ योजन, लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई पचास योजन है। पूर्व विवेक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थकरों का यहां अभिषेक होता है । इस शिला पर तीन सिहासन हैं। वे पाँच सौ धनुष ऊँचे और इतने ही चौड़े हैं। इनका निर्माण रत्नों से किया गया है । दक्षिण सिंहासन पर सौधर्मेन्द्र और उत्तर सिंहासन पर ऐशानेन्द्र तथा मध्य सिंहासन पर जिनेन्द्रदेव विराजते है ० ५,२४०-२५२
रक्तगान्धारी --- मध्यग्रामाश्रित संगीत की एक जाति । पपु० २४. १३-१५, हपु० १९.१७६
रक्तपंचमी - मध्यग्रामा श्रित संगीत की एक जाति । हरु० १९.१७६ रक्तवतीकूट – शिखरी - कुलाचल के ग्यारह कूटों में आठवाँ कूट । यह आकार में हिमवत् कूटों के समान है । हपु० ५.१०७
रक्ता - (१) चौदह महानदियों में तेरहवीं नदी । यह शिखरी पर्वत के पुण्डरीक सरोवर से निकलकर ऐरावतक्षेत्र में पूर्व की ओर बहती हुई पूर्वसमुद्र में गिरती है । मपु० ६३.१९६, हपु० ५.१२५, १३५, १६०
(२) सुमेरु पर्वत के पाण्डुक वन की नैऋत्य दिशा में स्थित स्वर्णमय एक शिला। इस पर पश्चिम विदेह के तीर्थरों का अभिषेक होता है । पु० ५.३४७-३४८
(३) शिखरी कुलाचल का पाँचवाँ कूट । हपु० ५.१०६ रक्तोदा - चौदह महानदियों में चौदहवीं महानदी । यह नदी शिखरी
पर्वत के पुण्डरीक सरोवर से निकलकर ऐरावतक्षेत्र में पश्चिम की ओर बहती हुई पश्चिम समुद्र में गिरती है मपु० ६३.१९६० ५.१२४, १३५, १६०
रक्तोष्ठ - विद्याधर वंशी एक राजा । यह विद्याधर लम्बिताघर का पुत्र और विद्याधर हरिचन्द्र का जनक था । पपु० ५.५२
रक्षद्वीप – एक राक्षसद्वीप
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इस द्वीप के स्वामी देव ने यह द्वीप ० १.५३-५४
पूर्णमेव को दिया था।
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