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३०० पुरानकोश
है। इसमें जीव के परिणाम सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित होते हैं। ऐसे परस्पर विरुद्ध परिणामधारी जीवों के अन्तःकरण सुख और दुःख दोनों से मिश्रित रहते हैं । हपु० ३.८०, ९२, वीवच० १६.५८ मीन - जलचर प्राणी-मछली । तीर्थंकर के गर्भावतरण के पूर्व उनकी माता को दिखायी देनेवाले सोलह स्वप्नों में आठवाँ स्वप्न । इस स्वप्न में माता को मछलियों का जोड़ा दिखायी देता है । मपु० ५.३४, २८.१७१, पपु० ३.१३१
मीनार्या - तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के समवसरण में विद्यमान तीन लाख तीस हज़ार आर्यिकाओं में मुख्य आर्थिका । मपु० ५३.५०
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मुकुट — सिर का एक दैदोप्यमान आभूषण । यह मस्तक पर उसकी शोभा हेतु धारण किया जाता है । भोग-भूमियों में यह भूषणांग जाति के कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाता था। प्राचीन काल में इसका बड़ा महत्त्व था। राजा महाराजा तथा विद्याधर इसे धारण करते थे । मपु० ३.९१, १३०, १५४, ५.४, ९.४९, १०.१२६, १५.५. १६.२३४
मुकुन्द-भरतक्षेत्र के आखण्ड का एक पर्यंत भरतेश की सेना यहाँ आयी थी । मपु० ३०.५०
मुक्त - ( १ ) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११३
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अनन्त
(२) जीवों का एक भेद । ये अष्टकर्मों से रहित, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से विभूषित, सुख के सागर, सर्व दुःखों से रहित लोकवासी सर्व बाधाओं से विमुक्त, ज्ञागशरीरी और अनन्त गुणसम्पन्न होते हैं । इन्हें अन्तराय से रहित अतुल और अनन्त सुख होता है । इनमें अचलत्व, अक्षयत्व, अव्याबाघत्व, अनन्तज्ञानत्व, दर्शनत्व अनन्तवीर्यता, अनन्तसुखता, नीरजस्त्व, निसत्व, अच्छे अभेद्यत्व, अक्षरत्व, अप्रमेयत्व, अगौरवलाघव, अक्षोभ्यत्व, अविलीनत्व, परमसिद्धता ये गुण भी होते हैं। मपु० २४.८८-८९, ४२.९७१०७, ६७.५, १०, पपु० १०५.१४८, वीवच० १६.३३-३५ मुक्तवन्त- आगामी तीन चक्रवर्ती मपु० ७६.४८२ मुक्तादाम - मोतियों से निर्मित बालाएं इन्हें विमानों में लटकाकर उनकी शोभावृद्धि की जाती है। ० ११.१२१ मुक्तावलीत एक व्रत इसमें २, ३, ४, ५, ४, १, २, १ के क्रम से पच्चीस उपवास और उपवासों के पश्चात् एक पारणा की जाती है । इस प्रकार यह व्रत चौतीस दिनों में पूर्ण होता है। ऐसा व्रती मनुष्यों में श्रेष्ठ होकर अन्त में मोक्ष जाता है मपू० ७.२० ३१, हपु० ३४.६९-७०, ६०.८३-८४ मुक्ताहार - ( १ ) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का छत्तीसवाँ नगर । मपु० १९.८३, ८७
(२) कण्ठ का आभूषण - मोतियों से निर्मित हार । इसे स्त्री और पुरुष दोनों धारण करते थे । इसका अपर नाम मुक्तामाला था । मपु० १५.८१, पपु० १.२७७ ७१.२
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मीन-मुद्गर
मुक्ति लक्ष्मी मोक्षलक्ष्मी यह संयम और तप से प्राप्त होती है मपु० १.२, ५.१५१
मुखभाण्ड घोड़ों की लगाम से घोड़ों के मुख में रखकर उन्हें नियन्त्रण में रखा जाता है । मपु० २९.११२
मुख्यकाल — वर्त्तना लक्षण काल का प्रथम भेद । गौण काल की प्रवृत्ति इसी काल के कारण होती है । हपु० ७.१, ४ मुण्डायनलपुर नगर के ब्राह्मण मूतिशर्मा और उसकी स्वी कमला का पुत्र । हरिवंशपुराण के अनुसार इसकी माँ का नाम कपिला था । मलय देश के राजा मेघरथ के मन्त्री द्वारा शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान करने के लिए कहे जाने पर इसने विरोध करते हुए मेघरव को उक्त तीनों दान मुनियों और दरिद्रियों के लिए ठीक तथा राजाओं के लिए अनुपयुक्त बताये थे। इसने कन्यादान, हस्तिदान, स्वर्णदान, मदनदान, गोदान, दासीदान, तिलदान, रखदान, भूमिदान और गृहदान ये दस प्रकार के दान चलाये थे । इसका अभिमत था कि तप क्लेश व्यर्थ है । जिनके पास धन नहीं है ऐसे साहसी मूर्ख मनुष्यों ने ही परलोक के लिए इस रूप के क्लेश की कल्पना की है । वास्तव में पृथिवीदान, स्वर्णदान आदि से ही सुख प्राप्त होता है । सम्यकदान का विरोध करने और मिथ्या दानों का प्रचार करने से अन्त में मरकर तह सातवें नरक गया तथा वहाँ से निकलकर तियंचगति में भटकता रहा । मपु० ५६.६६-६७, ८०-८१,
९६, ७१.३०४-३०८, हपु० ६०.११-१४ मुचिलिन्द - राम के समय का एक वन । फ्पु० ४२.१५ मुक्तिपमिनी नगर के राजा जयवंत के दूत अमृतस्वर और उसकी स्त्री उपयोगा का कनिष्ठ पुत्र, उदित का छोटा भाई | वसुभूति इन दोनों के पिता का मित्र था। वह इसकी माता को चाहता था और इसकी माता उसे चाहती थी। वसुभूति ने इसके पिता को मार डाला था। इस घटना से कुपित होकर इसके भाई उदित ने वसुदेव को मार डाला । वह मरकर म्लेच्छ हुआ । इसके पश्चात् दोनों भाई मतिवर्धन आचार्य द्वारा राजा को दिये गये उपदेश को सुनकर उनसे दीक्षित हो गए। विहार करते हुए दोनों भाई सम्मेदाचल जा रहे थे राह भूल जाने से वे उस अटवी में पहुंचे जहाँ वसुभूति का जीव म्लेच्छ हुआ था। इस अटवी में म्लेच्छ इन्हें मारने के लिए तत्पर दिखाई दिया। ये दोनों प्रतिमायोग में स्थिर हो गये ग्ले इन्हें मारने आया किन्तु उसके सेनापति ने उसे इन्हें नहीं मारने दिया। इस उपसर्ग से वचकर दोनों सम्मेदाचल गये । वहाँ दोनों ने जिनवन्दना की । अन्त में दोनों चिरकाल तक रत्नत्रय की आराधना करते हुए मरे और स्वर्ग गये । पपु० ३९.८४-१४५
मुद्ग - वृषभदेव के समय का एक दालान्न- मूंग । मपु० ३.१८७, पपु० २.७, ३३.४७
मुद्गर - ( १ ) लौह निर्मित एक अस्त्र । इन्द्र विद्याघर के साथ युद्ध करते समय रावण ने इसका व्यवहार किया था। मपु० ४४.१४३, पपु० १२.२५८, ७२.७४-७७
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