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२९६ : जैन पुराणकोश
सर्वरत्न कूट में गरुडकुमारों का इन्द्र वेगदारी, दक्षिण-पश्चिम कोण वेलम्ब कूट में वरुणकुमार देवों का स्वामी अतिवेलम्ब और पश्चिमोत्तर दिशा के प्रभंजन कूट में वायुकुमार देवों का इन्द्र प्रभंजन देव रहता है। पूर्व-दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम कोणों में निषधाचल और पूर्वोत्तर तथा पश्चिमोत्तर कोणों में नीलाचल पर्वत हैं । समुद्घात और उपपाद के सिवाय इस स्वर्णमय पर्वत के आगे विद्यावर और ऋद्धिधारी मुनि भी नहीं जा सकते। मपु० ५.२९१, ५४.८-९, ७०.२९२, हपु० ५.५७७, ५९१-६१२ मान्धाता - ( १ ) इक्ष्वाकुवंशी राजा दिननाथरथ का पुत्र और राजा वीरसेन का पिता । पपु० २२.१५४-१५५
(२) मथुरा के राजा मधु से पराजित एक महाशक्तिशाली नृप । पपु० ८९.४१
मान्या - अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज को सिद्ध विद्याओं में एक विद्या । मपु० ६२-३९३
माया- क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार कषायों में तीसरी कषाय । इसका निग्रह सरल भाव द्वारा किया जाता है। संसार में इसके कारण जीव तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होते हैं । मपु० ३६.१२९, पपु० १४.११० १११, ८५.११८-१६३
माया- क्रिया साम्परायिक आबकारी पच्चीस कियाओं में बीसवीं क्रिया-ज्ञान, दर्शन आदि के सम्बन्ध में वंचना प्रवृत्ति १८.८० मायागता — दृष्टिवाद अंग गत चूलिका भेद के पाँच भेदों में एक भेद । हपु० १०.१२३
मायानिद्रा — मायामय नींद । तीर्थंकर के जन्म के समय शची तोथंकर
की माता को इसी नींद में सुलाकर और प्रसूति से उन्हें बाहर लाकर अभिषेक हेतु इन्द्र को देती है। ० १३.२१, १४.७५ मायूरी - दिति और अदिति देवियों द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों को दी गयी विद्याओं में एक विद्या । हपु० २२.६३
मार - (१) चौथी पृथिवी के तीसरे प्रस्तार का इन्द्रक बिल | इस इन्द्रक की चारों महादिशाओं में छप्पन, विदिशाओं में बावन कुल एक सौ आठ विमान हैं। हपु० ४.८२-१३१
(२) आगामी नौवाँ रुद्र । हपु० ६०.५७१
मारजित् - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१० मारण – (१) पाँच फणोंवाला बाण नागराज ने यह बाण प्रद्युम्न को दिया था । मपु० ७२.११८-११९
(२) लंका का राक्षसवंशी एक विद्याधर राजा । इसके पूर्व लंका में राजा चामुण्ड का प्रशासन था । पपु० ५.३९६ मारिदत्त-वत्स देश का एक राजा राम लक्ष्मण और लवणांकुश के
बीच हुए युद्ध में इसने राम और लक्ष्मण का सहयोग किया था । पपु० ३७.२२, १०२.१४७
मारीच (१) विजयायं पर्वत की उत्तरगी में सुरेन्द्रकान्तार नगर के
राजा मेघवाहन और रानी अनन्तसेना का पुत्र । दूसरे पूर्वभव में यह जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकी नगरी
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मान्धाता - मार्कण्डेय
यह
के समीप मधुक वन में भीलों का राजा पुरूरवा नामक भील था । भील मद्य-मांस-मधु के त्याग का नियम लेकर समाधिपूर्वक मरने से सौधर्म-स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से चयकर इस पर्याय में आया था । मपु० ६२.७१, ८६-८९
(२) एक विद्याधर । यह विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नगर के राजा मय का मंत्री था। इसने मन्दोदरी का विवाह दशानन के साथ करने में राजा मय का समर्थन किया था । मन्दोदरी से उत्पन्न रावण की पुत्री को यहो मिथिला नगरी के उद्यान के पास एक प्रकट स्थान में छोड़ने गया था। यही रावण की आज्ञा से श्रेष्ठ मणियों से निर्मित हरिणशिशु का रूप बनाकर सीता के सामने गया था, जिसे सीता की इच्छानुसार राम पकड़ने गये थे । इस प्रकार इसकी से ही रावण सीताहरण कर सका था। पद्मपुराण के अनुसहायता सार रावण शम्बूक का वध करनेवाले को मारने आया था। सीता का सौन्दर्य देखकर वह लुभा गया । उसने अवलोकिनी - विद्या से राम-लक्ष्मण और सीता के नाम, कुल आदि जान लिये। शम्बूक का वध हो जाने से खरदूषण और लक्ष्मण को परार युद्धरत देखकर रावण ने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम ! कहा राम ने इस सिंहनाद को लक्ष्मण द्वारा किया गया जाना और दुःखी हुए। वे सीता को फूलों से ढककर और उसे निर्भय होकर रहने के लिए कहकर तथा जटायु से सीता की रक्षा करने का निवेदन करने के पश्चात् वहाँ से लक्ष्मण को बचाने चले गये । इधर रावण ने के जटायु विरोध करने पर उसके पंख काटकर सीता को पुष्पक विमान में बैठाकर अपहरण किया। इसने रावण से स्त्रीमोह को त्यागने तथा उसके हिताहित होने का विचार करने का आग्रह किया था । राम और रावण के युद्ध में युद्ध के प्रथम दिन ही राम के योद्ध सन्ताप को इसने ही मार गिराया था। रावण की ओर से युद्ध करते समय युद्ध में बन्धनों से आबद्ध होने पर इसने बन्धनों से मुक्त होते ही निर्ग्रन्थ साधु होकर पाणिपात्र से आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी । लक्ष्मण ने इसके बन्धनों से मुक्त होने पर इसे पूर्व की भाँति भोगोपभोग करते हुए सानन्द रहने के लिए कहा था किन्तु इसने प्रतिज्ञा भंग न करके भोगों में अपनी अनिच्छा हो प्रकट की थी। अन्त में यह विद्याधर अत्यधिक संवेग से युक्त और कषाय तथा राग भावों से विमुक्त होकर मुनि हो गया था । तप के प्रभाव से मरणोपरान्त यह कल्पवासी देव हुआ। मपु० १८.१९.२४ १९७-१९९ २०४० २०९, १०८.१६, ४४. ५९.९०, ४६.१२९.१२०, ६०.१०, ७८.९, १४, २३-२६, ३०-३१, ८२, ८०.१४३
मारत - सौधर्म और ऐशान स्वर्गों के इकतीस पटलों में बारहवाँ पटल | हपु० ६.४५
मातवेग -- दूसरे बलभद्र विजय के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.२३२ मार्कण्डेय - भरतक्षेत्र के हरिवर्ष देश में भोगपुर नगर के हरिवंशी राजा प्रभंजन और रानी मृकण्डु का पुत्र । इसका विवाह इसी देश में वस्वालय नगर के राजा वज्रचाप की पुत्रा विद्युन्माला से हुआ था । चित्रांगद देव ने इसे मारना चाहा था किन्तु सूर्यप्रभ देव के समझाने
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