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मलब-मसूर
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मलब - - भरतक्षेत्र के पूर्व आर्यखण्ड का एक जनपद । इसके शासक भरतेश छोटे भाई ने उनकी आधीनता स्वीकार न करके इसे त्याग दिया था और दीक्षा ले ली थी । हपु० ११.६०-६१, ६९ मल - परोषह - एक परीषह मन में किसी प्रकार की ग्लानि रखना । मपु० ३६.१२३
मलय -- (१) भरतक्षेत्र का एक देश । भद्रिलपुर इसी देश का एक नगर था । लक्ष्मण ने इस पर विजय प्राप्त की थी। तीर्थंकर नेमिनाथ यहाँ विहार करते हुए आये थे । मपु० ५६.२३, ६४, ७१.२९३, पपु० ५५.२८, ९४.६, हपु० ३३.१५७, ५८.११२
(२) राजा अचल का दूसरा पुत्र । मपु० ४८.४९
(३) राजा जरासन्ध के ज्येष्ठपुत्र कालयवन का हाथी । हपु०
५२.२९
(४) उत्तम चन्दन वृक्षों से सम्पन्न दक्षिण भरतक्षेत्र का एक पर्वत । चक्रवर्ती भरतेश का सेनापति दिग्विजय के समय यहाँ आया था । मपु० २९.८८, ३०.२६-२८, ३६, हपु० ५४.७४
(५) दशानन का पक्षधर एक नृप । पपु० १०.२८, ३७ मलयकांचन - विजयार्ध पर्वत का समीपवर्ती पर्वत । यहाँ मुनियों का आवागमन होता था । मपु० ४६. १३५ मलयगिरि - दक्षिण भारत का एक पर्वत । यहाँ भरतेश चक्रवर्ती ने विजय प्राप्त की थी। सह्य पर्वत इसके निकट था । यहाँ भील रहते थे । किन्नर देवियों का भी यहाँ गमनागमन था । पाण्डव विहार करते हुए यहाँ आये थे । मपु० ३०.२६ १७, हपु० ५४.७४ मलयानन्द - विद्याधरों का एक नगर । यहाँ का राजा रावण की सहायतार्थ अपने मन्त्रियों के साथ रावण के पास आया था । पपु० ५५.८६, ८८
मलहा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८६ मल्ल - भरतेश की अधीनता स्वीकार न करके उनके छोटे भाइयों द्वारा स्त्रयं छोड़े गये जनपदों में भरतक्षेत्र के पूर्व आर्यखण्ड का एक जनपद । चक्रवर्ती भरतेश के साम्राज्य में इसका विलय हो गया था । मपु० २९.४८, पु० ११.६०-६१, ६८-६९ मल्लयुद्ध नृषभदेव के समय की एक युद्ध प्रणाली भरते और बाहूबली ने सैन्य युद्ध रोककर परस्पर यह युद्ध किया था। इसमें योद्धा युद्धस्थल में भुजबल से परस्पर युद्ध करते हैं । ऐसे युद्धों का सैन्यसंहार रोकना लक्ष्य होता था । मपु० ३६.४०-४१, ५८ मल्लिनाथ - ( १ ) तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के प्रथम गणधर । मपु० ६७.४९, पु० ६०.३४८
(२) अवसर्पिणी के दुःषमा- सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं उन्नीसवें तीर्थंकर । ये भरतक्षेत्र के वंग देश में मिथिला नगरी के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा कुम्भ की रानी प्रजावती के पुत्र थे । सोलह स्वप्नपूर्वक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में गर्भ में आये तथा मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में जन्मे थे । ये जन्म
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जैन पुराणकोश: २८१
से ही तीन ज्ञान के यह नाम दिया था।
धारी थे। देवों ने जन्माभिषेक के समय इन्हें ये अरनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर हुए थे । इनकी आयु पचपन हजार वर्ष तथा शरीर पच्चीस धनुष ऊँचा था । देह की कान्ति स्वर्ण के समान थी । अपने विवाह के लिए सुसज्जित नगर को देखते ही इन्हें पूर्वजन्म के अपराजित विमान का स्मरण हो आया था । इन्होंने सोचा कि कहाँ तो वीतरागता से उत्पन्न प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा तथा कहाँ सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करनेवाला यह विवाह । ये ऐसा सोचकर विरक्त हुए । इन्होंने विवाह न कराकर दीक्षा धारण करने का निश्चय किया । लौकान्तिक देवों ने आकर स्तुति की तथा दीक्षा की अनुमोदना की । दीक्षाकल्याणक मनाये जाने के पश्चात् ये जयन्त नामक पालकी में आरूढ होकर श्वेतवन ( उद्यान) गये । वहाँ जन्म के हो मास, नक्षत्र, दिन और पक्ष में सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर बाह्य और आभ्यन्तर दोनों परिग्रहों को त्यागते हुए तोन सौ राजाओं के साथ संयमी हुए संयमी होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ। पारणा के दिन ये मिथिला आये । वहाँ राजा नन्दिषेण ने इन्हें प्राक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। छद्मस्थ अवस्था के छः दिन व्यतीत हो जाने पर इन्होंने श्वेतवन में ही अशोकवृक्ष के नीचे दो दिन के लिए गमनागमन त्याग कर जन्म के समान शुभदिन और शुभ नक्षत्र आदि में चार घातिया कर्मों— मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया । इनके समवसरण में विमानादि अट्ठाईस गणधर और पाँच सौ पचास पूर्वधारी उनतीस हजार शिक्षक दो हजार दो सौ अज्ञानी और इतने ही केवली तथा एक हजार चार सौ वादी, दो हजार नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, एक हजार सात सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी इस प्रकार कुल चालीस हजार मुनिराज तथा बन्धुषेणा आदि पचपन हजार आर्यिकाएँ एक का श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिथे इन्होंने बिहार कर भय जीवों को सम्बोधते हुए मुक्तिमार्ग में लगाया था । जब इनकी आयु एक मास की शेष रह गयी थी तब ये सम्मेदल आये तथा इन्होंने यहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय मोक्ष पाया । इस समय देवों ने इनका निर्वाण कल्याणक मनाया था। दूसरे पूर्वभव में ये जम्बूद्वीप में कच्छावती देश के वीतशोक नगर के वैश्रवण नामक राजा तथा प्रथम पूर्वभव में अनुत्तर विमान में देव से मपु० २.१३२, ६६.२-२, १५-१६, २०-२२, ३१-६२, पपु० ५.२१५, २०.५५, हपु० १.२१, पापु० २१.१, वीवच० १८.१०१-१०७
मधिकर्म यूषभदेव द्वारा बताये गये आजीविका के छः कर्मों में एक कर्म-लेखन कार्य द्वारा आजीविका करना । मपु० १६.१७९, १८१, हपु० ९.३५
मसारगल्व -- रत्नप्रभा प्रथम नरक का पाँचवाँ पटल । हपु० ४.५३ मसूर - वृषभदेव के समय का एक खाद्यान्न । यह दाल बनाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है । मपु० ३.१८७
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