________________
"भरक्षम-भरत
भरक्षम-लंका द्वीप में स्थित एक देश । यहाँ देव भी उपद्रव नहीं कर
सकते थे। पपु० ६.६६ भरत-(१) भरतेश-वर्तमान प्रथम चक्रवर्ती एवं शलाका-पुरुष। ये अवसपिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न हुए थे । अयोध्या के राजा वृषभदेव इनके पिता और रानी नन्दा इनकी माता थी । ब्राह्मणी इन्हीं के साथ युगल रूप में उत्पन्न हुई थी। इनके अठानबे भाई थे । सभी चरमशरीरी थे । इन्हें पितासे राज्य मिला था। चक्ररत्न, पुत्ररत्न, वृषभदेव को केवलज्ञान को प्राप्ति ये तीन सुखद समाचार इन्हें एक साथ ही प्राप्त हुए थे । इनमें सर्वप्रयम इन्होंने वृषभदेव के केवलज्ञान की उनके एक सौ आठ नामों द्वारा स्तुति की थी। इनकी छः प्रकार की सेना थी-हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना, पदातिसेना, देवसेना और विद्याधर-सेना। इस सेना के आगे दण्डरत्न और पीछे चक्ररत्न चलता था। विद्याधर नमि की बहिन सुभद्रा को विवाहने के बाद इन्होंने पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा के देवों तथा राजाओं को जीतकर उत्तर की ओर प्रयाण किया था तथा उत्तर भारत पर विजय की थी। इस प्रकार साठ हजार वर्ष में छः खण्ड युक्त भरतक्षेत्र को जीतकर ये अयोध्या लौटे थे। दिग्विजय के पश्चात् सुदर्शन चक्र के अयोध्या में प्रवेश न करने पर बुद्धिसागर मंत्री से इसका कारण-भाइयों द्वारा आधीनता स्वीकार न किया जाना" ज्ञात कर इन्होंने उनके पास दूत भेजे थे । बोधि प्राप्त होने से बाहुवली को छोड़ शेष भाइयों ने इनकी अधीनता स्वीकार न करके अपने पिता वृषभदेव से दीक्षा ले ली थो । बाहुबली ने इनके साथ दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध किये तथा तीनों में इन्हें हराया था। इन्होंने बाहुबली पर सुदर्शन चक्र भी चलाया था किन्तु इससे भी वे बाहुबली को पराजित नहीं कर सके । अन्त में राज्यलक्ष्मी को हेय जान उसे त्याग करके बाहुबली कैलास पर्वत पर तप करने लगे थे । बाहुबली के ऐसा करने से इन्हें सम्पूर्ण पृथिवी का राज्य प्राप्त हो गया था। इन्होंने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की थी। चक्र, छत्र, खड्ग, दण्ड, काकिणी, मणि, चर्म, सेनापति, गृहपति, हस्ति, अश्व, पुरोहित, स्थपति और स्त्री इनके ये चौदह रत्न, आठ सिद्धियाँ तथा काल, महाकाल, पाण्डुक भाणव, नैसर्प, सर्वरत्न, शंख, पद्म और पिंगल ये नौ इनकी निधियाँ थीं । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा और इतने ही देश इनके आधीन थे । इन्हें छियानवे हजार रानियाँ, एक करोड़ हल, तीन करोड़ कामधेनु-गायें, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी और इतने । ही रथ, अर्ककीर्ति और विवर्धन को आदि लेकर पांच सौ चरम शरीरी तथा आज्ञाकारी पुत्र, भाजन, भोजन, शय्या, सेना, वाहन, आसन, निधि, रत्न, नगर और नाट्य ये दस प्रकार के भोग उपलब्ध थे। अवतंसिका माला, सूर्यप्रभ छत्र, सिंहवाहिनी शय्या, देवरम्या चाँदनी, अनुत्तर सिंहासन, अनुपमान चमर, चिन्तामणि रत्न, दिव्य रत्न, वीरांगद कड़े, विद्युत्प्रभ कुण्डल, विषमोचिका खड़ाऊँ, अभेद्य कवच, अजितंजयरथ, वज्रकाण्ड धनुष, अमोघ वाण, वत्रतुण्डा शक्ति आदि विभूतियों से ये सुशोभित थे। सोलह हजार
जैन पुराणकोश : २५५ गणबद्ध देव सदा इनकी सेवा करते थे। इनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न था। ये चौंसठ लक्षणों से युक्त समचतुरस्रसंस्थानमय देह से सम्पन्न थे । बहत्तर हजार नगर, छियानवें करोड़ गाँव, निन्यानवें हजार द्रोणमुख, अड़तालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट, छप्पन अन्तर्वीप, चौदह हजार संवाह इनके राज्य में थे । इनके विवर्द्धन आदि नौ सौ तेईस राजकुमारों ने वृषभदेव के समवसरण में संयम धारण किया था। इनके साम्राज्य में ही सर्वप्रथम स्वयंवर प्रथा का शुभारम्भ हुआ था। चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग करने के पश्चात् अर्ककीति को राज्य सौंप करके इन्होंने जिन-दीक्षा ले ली थी । केशलोंच करते हो इन्हें केवलज्ञान हो गया था। इन्द्रों द्वारा इनके केवलज्ञान की पूजा किये जाने के पश्चात् इन्होंने बहुत काल तक विहार किया। आयु के अन्त समय में वृषभसेन आदि गणधरों के साथ कैलास पर्वत पर कर्मों का क्षय करके इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। इनकी आयु चौरासी लाख पूर्व की थी। इसमें इनका सतहत्तर लाख पूर्व समय कुमारकाल में, छ: लाख पूर्व समय साम्राज्य में और एक लाख पूर्व समय मुनि अवस्था में व्यतीत हुआ था। इस प्रकार चौरासी लाख पूर्व आयु काल में ये सतहत्तर लाख पूर्व काल तो कुमारावस्था में तथा एक हजार वर्ष मण्डलेश्वर अवस्था में, साठ हजार वर्ष दिग्विजय में, एक पूर्व कम छः लाख पूर्व चक्रवर्ती होकर राज्य शासन में, तथा एक लाख पूर्व तेरासी लाख निन्यानवें हजार नौ सौ निन्यानवें पूर्वांग और तेरासी लाख नौ हजार तीस वर्ष संयमी और केवली अवस्था में रहे । ये वृषभदेव के मुख्य श्रोता थे । ये आठवें पूर्वभव में वत्सकावती देश के अतिगृध्र नामक नप, सातवें में चौथे नरक के नारको, छठे पूर्वभव में व्याघ्र, पांचवें में दिवाकरप्रभ देव, चौथे में मतिसागर मंत्री, तीसरे में अहमिन्द्र, दूसरे में सुबाहु राजपुत्र और प्रथम पूर्वभव में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र थे । कैलास पर्वत पर इन्होंने महारत्नों से चौबीसों अहंन्तों के मन्दिरों का निर्माण कराया था। कैलास पर्वत पर ही पांच सौ धनुष ऊँची एक वृषभदेव की प्रतिमा भी इन्होंने स्थापित करायी थी। भरतक्षेत्र का 'भारत' यह नामकरण इन्हीं के नाम पर हुआ था। मपु० ३.२१३, २३२, ८१९१-१९४, २१०, २१५, ९.९०-९३, ११.१२,१६०, १५. १५१, २१०, १६.१-४, १७.७६, २४.२-३, ३०-४६, २९.६-७, ३०.३, ३२.१९८, ३३.२०२, ३६.४५, ५१-६१, ३७.२३-३६, ५३, ६०-६६, ७३-७४, ८३, १४५, १५३, १६४, १८१-१८५. ३८.१९३, ४६.३९३-३९५, ४७.३९८, ४८.१०७, ७६.५२९, पपु० ४.५९-७८, ८३-८४, १०१-११२, ५.१९५, २००-२२२, २०.१२४-१२६, ९८.६३-६५, हपु० ९.२१-२३, ९५, २१३, ११. १-३१, ५६-६२, ८१, ९२, ९८, १०३, १०७-११३, १२६-१३५, १२.३-५, ८, १३.१-६, ६०.२८६, ४९४-४९७, वीवच० १८.८७, १०९, १८१
(२) अयोध्या के राजा दशरथ और इनकी रानी केकया का पुत्र । इसका विवाह जनक के भाई कनक की पुत्री लोकसुन्दरी के साथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org