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जैन पुराणकोश : २५१
परस्त्रियों में राग-भाव का परित्याग कर स्वस्त्रियों में ही सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इससे अहिंसा आदि गुणों की वृद्धि होती है । इसका अपरनाम स्वदारसन्तोषव्रत है। हपु० ५८.१३२, १४१,
१७५, पापु० २३.६७ ब्रह्मचारी-मन, वचन, काय, कृत-कारित-अनुमोदना से स्त्री मात्र का त्यागी। (दे० ब्रह्मचर्य) यह श्वेत वस्त्र धारण करता है । अन्य वेष
और विकारों से रहित रहकर व्रतचिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत धारण ___ करता है । उपनोति क्रिया के समय बालक भी ब्रह्मचारी होता है।
मपु० ३८.३९, ९४, ९५, १०४-१२० ब्रह्मतत्त्वज्ञ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१० ब्रह्मदत्त-(१) वेदों का ज्ञाता-गिरितट नगर का वासी एक उपाध्याय ।
कुमार वसुदेव इसी उपाध्याय के निकट अध्ययनार्थ आये थे । हपु० २३.३३
(२) साकेत नगर का राजा । इसने तीर्थकर अजितनाथ को दीक्षा के पश्चात् किये हुए षष्ठोपवास के अनन्तर आहार दिया था। पपु०
बेलाक्ष पी-ब्रह्मरुचि
(४) मंघाधिपति सेठ मेरुदत्त का विद्वान् और शास्त्रज्ञ मन्त्री । मपु० ४६.११३ बेलाक्षेपी-राम का एक योद्धा । पपु० ५८.१५-१७ बोषचतुष्क-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान । हपु०
५५.१२५ बोषि-रलत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । मपु० ३९.
८५-८६, हपु० ३.१९० बोषिदुर्लभ-रत्नत्रय-प्राप्ति की दुर्लभता का चिन्तन । यह बारह भाव.
नाओं में ग्यारहवीं भावना है । इसमें मनुष्य भव, आर्यखण्ड में जन्म, उत्तम कुल, दीर्घायु की उपलब्धि, इन्द्रियों की पूर्णता, निर्मल बुद्धि, देव, शास्त्र-गुरु का समागम, दर्शन विशुद्धि, निर्मलज्ञान, चारित्र, तप और समाधिमरण इनकी उत्तरोत्तर दुर्लभता का चिन्तन किया जाता है । मपु० ११.१०८-१०९, पपु० १४.२३९ पापु० २५.१११-११६,
वीवच० ११.११३-१२१ अघ्नमंडल-सूर्य मंडल । मपु० १८.१७८, हपु० २.१४५ ब्रह्म-(१) ब्रह्मलोक के चार इन्द्र क विमानों में तीसरा इन्द्रक विमान । हपु० ६.४९
(२) पाँचवाँ कल्प (स्वर्ग)। यह लौकान्तिक देवों की आवासभूमि है। नवें चक्री महापद्म और ग्यारहवें चक्री जयसेन इसी स्वर्ग से च्युत होकर चक्री हुए थे। सातवें, आठवें बलभद्र पूर्वभव में इसी स्वर्ग में थे । मरीचि इसी स्वर्ग में देव हुआ था। ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर इन दोनों स्वर्गों का यह एक पटल है। इसके चार इन्द्रक विमान हैं-अरिष्ट, देवसंगीत, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर । मपु० १७.४७, पपु० २०.१७८-१७९, १८८-१८९, २३६, हपु० ६.३६,४९, वीवच० २.९७-१०५
(३) भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी का राजा । सुभद्रा इसकी पहली रानी थी और अचलस्तोक इसका पुत्र था। यह बलभद्र था। इसकी दूसरी रानी उषा थी । नारायण द्विपृष्ठ इसका पुत्र था। मपु० ५८.
८३-८४ ब्रह्मचर्य-अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों में एक महाव्रत । इसमें मन,
वचन, काय से स्त्रियों को माता के समान माना जाता है । यह ग्यारह प्रतिमाओं में सातवीं प्रतिमा है। इसमें स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग होता है। यह उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में दसवाँ धर्म है । मपु० १०.१६०, ३६.१५८, पापु० २३.६७, वीवच० १८.६४, २३. ६४- ६८ ऐसा महाव्रतो देव, मनुष्य, पशु तथा कृत्रिम स्त्रियों (चित्र आदि) से पूर्ण विरक्त रहता है । इस महाव्रत के पालन के लिए स्त्रीरागकथा श्रवण, स्त्रो-मनोहरांग निरीक्षण, स्त्रीपूर्वरतानुस्मरण, स्वशरीरसंस्कार
और कामोद्दीपक गरिष्ठ-रस-त्याग ये पाँच भावनाएँ होती है । इसके पाँच अतिचार होते है-१. परविवाहकरण २. अनंगक्रीड़ा ३. गृहीतेत्वरिकागमन ४. अगृहीतेत्वरिकागमन और ५. कामतीव्राभि- निवेश । मपु० २०.१६४, हपु० ५८.१२१, १७४, पापु० ९.८६ अपने ब्रह्म में (आत्मा) में विचरण करना स्वभावज ब्रह्मचर्य है।
(३) अवसर्पिणीकाल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं बारहवाँ चक्रवर्ती । तीर्थकर नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के अन्तराल में यह काम्पिल्य नगर के राजा ब्रह्मरथ और उसकी चुडादेवी नामा रानी के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ था। इसकी शारीरिक ऊँचाई सात धनुष तथा आयु सात सौ वर्ष थी। इसने अट्ठाईस वर्ष कुमारावस्था में, छप्पन वर्ष मण्डली अवस्था में, सोलह वर्ष दिग्विजय में और छः सौ वर्ष राज्यावस्था में बिताये थे । यह संयम धारण नहीं कर सका था। मपु० ७२.२८७-२८८, हपु० ६०. २८७, ५१४-५१६ वीवच० १८.१०१-११० पूर्वभव में यह काशी नगरी में सम्भूत नामक राजा था। मरने के बाद यह कमलगुल्म नामक विमान में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर चक्रवर्ती हुआ। लक्ष्मी से विरक्त न हो सकने से मरकर सातवें नरक गया। पपु०
२०.१९१-१९३ ब्रह्मनिष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३१ ब्रह्मपदेश्वर-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२४.४५ ब्रह्मभूति-द्वापुरी का राजा । यह द्वितीय नारायण द्विपृष्ठ का पिता
था। माधवी इसकी रानी थी । पपु० २०.२२१-२२६ ब्रह्मयोनि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु०
२५.१०६ ब्रह्मरथ-(१) काम्पिल्य नगर का राजा । यह बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त का पिता था । पपु० २०.१९१-१९२
(२) इक्ष्वाकुवंशो राजा। यह सिंहरथ का पुत्र और चतुमुख का पिता था । पपु० २२.१५४ ब्रह्मरुचि-एक वैदिक ब्राह्मण । इसने एक मुनि के उपदेश से अपना
पूर्व मत त्यागकर दिगम्बर दोक्षा धारण कर ली थी। इसकी पत्नी कूर्मों से नारद उत्पन्न हुआ था। पपु० ११.११७-१४४
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