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पुरुहूत-पुष्पक
६०.६८-८२, ६७.१४२-१४४, पपु० २०.२२३-२२८, पु० ५३. ३७, ६०.५२३-५२५, वीवच० १८.१०१ ११२
(२) तीर्थंकर विमलनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५३०५३३
पुरुहूत - (१) विद्याधर नमि राजा का पुत्र । रवि और सोम इसके बड़े भाई तथा अशुमान्, हरि, जय, पुलस्त्य, विजय, मातंग और वासव छोटे भाई थे । कनकपुजश्री और कनकमंजरी इसकी बहिनें थीं । हपु० २२.१०७-१०८
( २ ) इन्द्र । मपु० ९४.१६३
पुरोपस — पुरोहित यह भरतश चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक सजीव
रत्न था । इसकी एक हजार देव रक्षा करते थे । यह चक्रवर्ती का मार्गदर्शक था । मपु० २८.६०, ३७.८३-८६, हपु० ११.१०८-१०९ पुलस्त्य - (१) विद्याधर नमि का पुत्र । हपु० २२.१०७-१०८ दे० पुरुहूत
(२) विनमि के वंशज पंचाशग्रीव का पुत्र । इसने लंका में पन्द्रह हजार वर्ष तक राज्य किया था। मेघश्री इसकी रानी थी । दशानन इन्हीं दोनों का पुत्र था । मपु० ६८.११-१२ पुलाक - निर्ग्रन्थ साधु के पाँच भेदों में प्रथम भेद । ये उत्तरगुणों के अन्तर्निहित भावना से रहित होते हैं। मूलव्रतों का भी पूर्णतः पालन नहीं करते हैं । हपु० ६४.५८-५९ ये सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमों को पालते हैं और दशापूर्व के धारी होते हैं। इनके पीत पद्म और शुक्ल ये तीन लेयाएं होती हैं और मृत्यु के बाद इनका उपपाद (जन्म ) सहस्रार स्वर्ग में होता है । हपु० ६४.
५८-७८
पुलिन्द – वृषभदेव के काल के वन्य जाति के लोग । मपु० १६.१५६,
१६१
पुलोम-हरिवंश के राजा कुणिम का पुत्र इसका पिता इसे राज्य सौंप कर तप के लिए चला गया था। इसने पुलोमपुर नगर बसाया था । कुछ वर्षों तक न्यायपूर्वक प्रजा - पालन के पश्चात् यह भी अपने पौलोम और चरम नामक पुत्रों को राज्य सौंपकर तप के लिए चला गया था । हपु० १७.२४-२५
पुलोमपुर - राजा कुणिम के पुत्र पुलोम द्वारा बसाया गया विदर्भ का
एक नगर । हपु० १७.२४-२५
पुष्कर -- (१) वाद्यों की एक जाति । ये चर्मावृत होते हैं। मुरज, पटह, पखावजक आदि वाद्य पुष्कर वाद्य ही हैं । मपु० ३.१७४, १४.११५
(२) अच्युत स्वर्ग का एक विमान । मपु० ७३.३०
(३) तीसरा द्वीप । चन्द्रादित्य नगर इसी में स्थित था। इसकी पूर्व पश्चिम दिशाओं में दो मेरु हैं । यह कमल के विशाल चिह्न से युक्त है । इसका विस्तार कालोदधि से दुगुना है और यह उसे चारों ओर से घेरे हुए है। इसका आधा भाग मनुष्य क्षेत्र की सीमा निश्चित करनेवाले मानुषोत्तर पर्वत से घिरा हुआ है। उत्तर-दक्षिण दिशा में इष्वाकार पर्वतों से विभक्त होने से इसके पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम
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जैन पुराणकोश २२७
पुष्करार्ध ये दो भेद हैं। दोनों खण्डों के मध्य में मेरु पर्वत है। इसकी बाह्य परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ पच्चीस योजन से कुछ अधिक है। इसका तीन लाख पचपन हजार छः सौ चौरासी योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतों से रुका हुआ है । मपु० ७.१३, ५४.८, पपु० ८५.९६, हपु० ५.५७६-५८९
पुष्करवर - पुष्करवरद्वीप को घेरे हुए एक समुद्र । मपु० ५.६२८
1
६२९
पुष्करार्ध - धातकीखण्ड के समान क्षेत्रों तथा पर्वतों से युक्त आघा पुष्करद्वीप हपु० ५ १२० घातकीखण्ड I
पुष्करावत - चक्रवर्ती भरतेश का एक महल । मपु० ३७.१५१ पुष्करेक्षण - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मयुर २५.१४४
पुष्करोद - मानुषोत्तर पर्वत के पश्चिम का एक समुद्र । इस पर्वत के चौदह गृहाद्वारों से निकलकर पूर्व-पश्चिम में बहनेवाली नदियां इसी उदधि में आकर गिरती हैं । हपु० ५.५९५-५९६
पुष्कल – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४४ पुष्कलावती (१) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सोता नदी और नील कुलाचल के मध्य प्रदक्षिणा रूप से स्थित छः खण्डों में विभाजित एक देश । पुण्डरीकिणी नगरी इसकी राजधानी थी। विजयार्धं पर्वत भी इसी देश में है । यह तीर्थंकरों के मन्दिरों, चतुर्विध संघ और गणधरों से युक्त रहता है। यहाँ मनुष्यों की शारीरिक ऊँचाई सौ धनुष और आयु एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण होती है। यहाँ सदा चौथा काल रहता है । यहाँ के मनुष्य मरकर स्वर्ग और मोक्ष ही पाते हैं । मपु० ४६.१९, ५१.२ ३, २०९-२१३, पु० ५.२४४- २४६ २५७-२५८, ३४.२४, ० २.६-१७
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(२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में भी इस नाम का एक देश है । मपु० ६.२६-२७, ६३, १४२, पापु० ५.५३
(३) जम्बूद्वीप के गान्धार देश की नगरी । मपु० ७१.४२५, हपु० ४४.४५, ६०.४३, ६८
पुष्ट - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०१ पुष्टि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०१ पुष्पक - (१) आकाशगामी विमान। यह विमान स्वामी की इच्छानुसार गमनशील होता है । यह विमान रावण के मौसेरे भाई वंश्रवण के पास था। रावण ने वैश्रवण को जीतकर इसे प्राप्त कर लिया था। इसी में बैठकर रावण ने सीता का हरण किया था और राम से युद्ध करने के लिए इसी विमान पर आरूढ़ होकर लंका से उसने निर्गगत किया था । रावण वध के पश्चात् राम-लक्ष्मण और सीता आदि इसी यान से अयोध्या आये थे । मपु० ६८.१९३-१९४, पपु० ७.१२६-१२८, ८.२५३-२५८, ४१६, १२.३७०, ४४.९०, ५७.६४-६५, ८२.१ (२) आनत - प्राणत स्वर्गों का तृतीय पटल एवं इन्द्रक विमान । हपु० ६.५१
(२) राजपुर का एक बन था । मपु० ५५.४६-४७, ७५.४६९
यह तीर्थकर पुष्पदन्त की दीक्षाभूमि
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