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________________ २०८ पुराणकोश सेने के छ माह पूर्व से कुबेर साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा करता है । मपु० ४८.१८-२०, २०५-२२२, पु० ८.१३१, ३७.१-५५, १०० १२९, ५६.११२-११८, ६५.१-१७ पंचकल्याणकव्रत - एक व्रत। इसमें आवश्यक (षडावश्यक) कार्य करते हुए चौबीस तीर्थंकरों के पाँच कल्याणकों की १२० तिथियों के १२० उपवास किये जाते हैं । हपु० ३४.१११ पंचगिरि - एक ५.२५-२९ पर्वत । यह मुनि संजयन्त की केवलज्ञानस्थली है । पपु० पंचगुरु- अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । ये अतीत की अपेक्षा अनन्त, वर्तमान की अपेक्षा संख्यात तथा भविष्यतकाल की अपेक्षा अनन्तानन्त हैं । हपु० १.२७-२८ पंचनद - (१) ह्रीमन्त पर्वत का एक तीर्थं । हपु० २६.४५ (२) पाँच नदियों से सम्बोधित देश-पंजाब यहाँ के हाथी की भरत को भेंट में दिये गये थे । मपु० ३०.९८ पंचनमस्कार सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार - अर्हत्, मंत्र (णमोकार ) | यह मंत्र समस्त पापों से मुक्त करता सूचक है । इसके प्रभाव से कई तिर्यंच मनुष्य और देव हुए हैं। इसे पंचनमस्कृति तथा पंचनमस्कारपद नाम से भी अभिहित किया गया है । मपु०३९.४३, ७०.१३६-१३८, पपु० ६.२३८- २४२, हपु० २१.१०७ । पंचसिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु मपु० २५.२२२ पंचब्रह्ममय- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१०५ पंचम - संगीत का एक स्वर । हपु० १९.१५३ पंचममहाव्रत- अपरिग्रह - महाव्रत। इसके पालन में बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ा जाता है । हपु० २.१२१ - पंचमार्णव- - क्षीरसागर । इसके जल से भगवान् का प्रथम अभिषेक किया जाता है । मपु० १३. ११२ पंचमावगमेश पंचमज्ञान- केवलज्ञान के स्वामी । मपु० ४९.५७ पंचमी - संगीत की मध्यम ग्राम के आश्रित एक जाति । हपु० १९.१७६ पंचमुख- पंचमुखी पांचजन्य शंख । यह लक्षण के सात रत्नों में एक था । मपु० ६८.६७६-६७७ पंचमेरु- निम्न पाँच मेरुजम्बूद्वीप के पूर्व-पश्चिम दिशावर्ती दो मेरा पातकीखण्ड के दो मेरु तथा पुष्करवर द्वीप का एक मेरु । इनके आगे मनुष्यों का गमन नहीं है । पु० ५.४९४, ५१३, ५७६-५७७ पंचरत्नवृद्धि तीर्थकरों को आहार देनेवालों के घर पर देवों के द्वारा की जानेवाली पाँच प्रकार के रत्नों की वर्षा । मपु० १.११ दे० पंचाश्चर्य पंचविशतिकल्याणभावना - एक व्रत। इसमें अहिंसा आदि महाव्रतों में प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ होने से पच्चीस भावनाओं को लक्ष्य करके एक उपवास और एक पारणा के क्रम से पच्चीस उपवास Jain Education International पंचकल्याणक - पंचास्तिकाय और पच्चीस पारणाएं की जाती हैं। भावनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं - १. सम्यक्त्व भावना २. विनय भावना ३. ज्ञान भावना ४. शील भावना ५. सत्य भावना ६ श्रुतभावना ७ समिति भावना ८. एकान्त भावना ९. गुप्ति भावना १०. धर्मध्यान भावना ११. शुक्लध्यान भावना १२. संक्लेश-निरोध भावना १३. इच्छा निरोध भावना १४. संवर भावना १५ प्रशस्तयोग भावना १६. संवेग भावना १७. करुणा भावना १८. उद्वेग भावना १९. भोग- निर्वेद भावना २०. संसार निर्वेद भावना २१. मुक्ति-वैराग्य भावना २२. मोक्ष भावना २३. मंत्री भावना २४. उपेक्षा भावना और २५. प्रमोद भावना हपु० ३४.११२-११६ पंचशतग्रीव - राजा बलि के वंश में उत्पन्न हुआ विद्याधर राजा । हपु० २५.३६ पंचशिरा - कुण्डलवर द्वीप के कुण्डलगिरि पर्वत पर पूर्व दिशावर्ती वज्रप्रभ नाम के दूसरे कूट का निवासी देव । यह इस पर्वत के नागकुमार देवों के सोलह इन्द्रों में एक इन्द्र है । हपु० ५.६८६, ६८९-६९० पंचशैलपुर - राजगृह नगर का दूसरा नाम । पाँच पर्वतों से युक्त होने के कारण यह नगर इस नाम से विख्यात है । पाँचों पर्वतों के नाम हैंऋषिगिरि, बंभार, विपुलाचन, बलाहक और पाण्डुक यहाँ तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म हुआ था। इन्हीं पर्वतों पर तीर्थकर वासुपूज्य को छोड़कर शेष तेईस तीर्थंकरों के समवसरण हुए हैं । हपु० ३.५१-५८ पंचसूनावृत्ति - चक्की, चूल्हा, ओखल, बुहारी और पानी की आरम्भिक क्रियाएँ। इनसे उत्पन्न दोष पात्रदान आदि से दूर होते हैं । मपु० ६३.३७४ पंचाग्नि - एक तप । तापस पाँच अग्नियों के मध्य बैठकर यह तप करते हैं । मपु० ५९.२८९, ६५.६०-६१, ७३.९८ पंचाल देव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित देश तीर्थकर वृषभदेव नेमिनाथ और महावीर ने यहाँ विहार किया था भरतेश ने इस देश को अपने आधीन किया। इसका अपरनाम पांचाल था । मपु० १६.१४८, १५३, २५.२८७, २९.४०, ३७.१६, हपु० ३.३, ४.५४ ५९.११० पंचाशद्ग्रीव - लंका का राजा। यह राजा विनमि के वंश में उत्पन्न सहस्रग्रीव का पौत्र और शतग्रीव का पुत्र था। इसने लंका में बीस हजार वर्ष तक राज्य किया था। पुलस्त्य इसका पुत्र और रावण पौत्र था । मपु० ६८.४-१२ पंचाचार्य तीर्थकरों और सिद्धि प्राप्त मुनियों को विधिपूर्वक आहार देने के पश्चात् होनेवाली आश्चर्यकारी पांच बारों-देवकृत रत्नवर्षा, पुष्पवर्षा गोष्टि और सुगन्धित प्रवाह और अहोदानं अहोदानं की ध्वनि । मपु० ८.१७२-१७५, हपु० ९.१९० 7 १९५ पंचारिकादेवी द्रव्य ये द्रव्य पाँच जीव मुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । इनमें जीव, धर्म और अधर्म तो असंख्यात प्रदेशो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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