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निबन्ध-निर्जरा
निबन्ध - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी के सौ पुत्रों में इकहत्तरवाँ पुत्र । पापु० ८.२०१
निबन्धन अप्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु की बीस प्राभृतों में कर्म प्रकृति नामक चतुर्थ प्राभृत के चौबीस योगद्वारों में सातवाँ योगद्वार । पु० १०.८२ दे० अग्रायणीयपूर्व
निमग्नजला - विजयार्ध पर्वत की तमिस्रा गुहा में विद्यमान एक नदी । मपु० ३२.२१, हपु० ११.२६
निमित्त अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, खिन्न और स्वप्न ये आठ निमित्त होते हैं । इनके द्वारा भावी शुभाशुभ जाना जाता है । मपु० ६२.१८०-१८१, हपु० ० १०.११७ निमित्तशास्त्र — निमित्तों का फल बतानेवाला शास्त्र । भरतेश इस शास्त्र
के ज्ञाता थे । मपु० ४१.१४७- १४८
निमिष - विजयार्ध की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में चौतीसवाँ नगर । मपु० १९.८३
नियम - मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्या - संगम से विरति । नियमवान् जन तपस्वी कहलाते हैं । पपु० १४.२०२, २४२-२४३, हपु० ५८.१५७
नियमदत्त - कुमुदावती नगरी का निवासी एक वणिक् । राजपुरोहित ने इसका धन छिपा लिया था। राजा की आज्ञा से रानी ने जुए में पुरोहित को हराकर उसकी अंगूठी जीत ली और अंगूठी को पुरोहित की पत्नी के पास भेजकर तथा इसका धन मँगाकर इसे दिया था । अन्त में यह तपश्चरणपूर्वक मरकर नागकुमारों का राजा धरणेन्द्र हुआ । पपु० ५.३७-४२, ४६
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नियमितेन्द्रिय – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१३
नियुत - चौरासी लाख नियुतांग प्रमाण काल । हपु० ७.२६, दे० काल नियुतांग -- चौरासी लाख पूर्वं प्रमाण काल । हपु० ७.२६ दे० काल निरंजन - भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । ० २४.३८, २५.११४
मपु०
निरंबर - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०४ निरक्ष - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१४४ निरनुकंप - पलाशकूट नगर के यक्षदत्त गृहस्थ के ज्येष्ठ पुत्र यक्ष का अपर नाम । मपु० ७१.२७८-२८०
निरस्तेना -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३९
निराबाध - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११३ निराशंस - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. २०४ निरास्रव - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३९ निराहार - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१३९ निरीति — इतियों का अभाव। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषण, शलभ, एक और निकटवर्ती रानु छ ईतियाँ है मपू० १२.१६९. २६
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जैन पुराणकोश : २०१
निरुक्तवाक्-सोधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.
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निरुक्तोक्ति - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. ११४
निस्तर -- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१७३ निगत्गुरू सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१७२ निरुद्ध - ( १ ) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३८
(२) पाँचवीं पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में तम इन्द्रक बिल की पूर्व दिशा में विद्यमान महानरक । हपु० ४.१५६
निरुar - भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । ० २४.३८, २५.१८५
मपु०
निरुपद्रव - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३८ निरुपप्लव – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १३९
निरोध - चौथी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में आर इन्द्र कबिल की दक्षिण दिशा में विद्यमान महानरक । हपु० ४.१५५
निर्गुण - सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १३६
निन्दनिष्परिग्रही, शरीर से निःस्पृहो, करपात्री मुनि ये तप का साधन मानकर देह की स्थिति के लिए एक, दो उपवास के बाद भिक्षा के समय याचना के बिना ही शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आहार ग्रहण करते हैं । रक्षक एवं घातक दोनों के प्रति ये समभाव रखते हैं । ये सदैव ज्ञान और ध्यान में लीन रहते हैं । मपु० ७६. ४०२-४०९, पपु० ३५.११४-११५ ये पाँच प्रकार के होते हैंपुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनमें पुलाक साधु उत्तरगुणों की भावना से रहित होते हैं। मूल व्रतों का भी वे पूर्णतः पालन नहीं करते । बकुश मूलव्रतों का तो अखण्ड रूप से पालन करते हैं परन्तु शरीर और उपकरणों को साफ़, सुन्दर रखने में लीन रहते हैं । इनका परिवार नियत नहीं होता है । इनमें जो कषाय रहित हैं वे प्रतिसेवनाशील और जिनके मात्र संचलन का उदय रह गया है वे कषायकुशील होते हैं । जिनके जल-रेखा के समान कर्मों का उदय अप्रकट हैं तथा जिन्हें एक मुहूर्त के बाद ही केवलज्ञान उत्पन्न होनेवाला है वे निर्ग्रन्थ होते हैं। जिनके घातियाकर्म नष्ट हो गये हैं वे अर्हन्त स्नातक कहलाते हैं । हपु० ६४.५८-६४ निग्रन्थेश - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.
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निर्घात - महाविद्या और महापराक्रमवारी एक विद्याधर । अशनिवेग ने उसे लंका का शासक नियुक्त किया था। अलंकारपुर के राजा सुकेश
के पुत्र माली विद्याधर ने उसे मारकर लंका में अपने वंश का राज्य पुनः प्राप्त किया था । पपु० ६.५०५, ५३८, ५६० निर्जरा - कर्मों का क्षय हो जाना। यह दो प्रकार की होती है—सविपाक और अविपाक । इनमें अपने समय पर कर्मों का झड़ना सविपाक और
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