________________
१९२ : जैन पुराणकोश
प्रतिमाएँ विराजमान होने से प्रतिवर्ष फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिक मास के आष्टाह्निक पर्वों में देव आकर पूजा करते हैं । यहाँ चौसठ वनखण्डों पर भव्य प्रासाद हैं, जिनमें उन वनों के नामधारी देव रहते हैं । मपु० ५.२१२, २९२, ७.१६१, १६.२१४ - २१५, पपु० १५.७४, २९.१ ९ हपु० ५.६१६, ६४७-६८२, २२.१-२ नन्दीश्वरमह— नन्दीश्वर द्वीप में आष्टाह्निक पर्वों पर देवों के द्वारा आयोजित जिनेन्द्र-पूजा । यह कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के अन्तिम आठ दिनों में की जाती है । दे० नन्दीश्वर - २ इन दिनों में देव भोग आदि छोड़ देते हैं । इन्द्रों के साथ वे जिनेन्द्र की पूजा में तत्पर रहते हैं । यह पूजन जिनेन्द्र के अभिषेक पूर्वक की जाती है । ऐसी पूजा के करनेवाले देवों की सम्पदा, चक्रवर्तियों के भोग और मुक्ति प्राप्त करते हैं । पपु० ६८.१, ५-६, २४
नन्दोत्तर- मानुषोत्तर के दक्षिण दिशा में विद्यमान लोहितासकूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६०३
नन्दोत्तरा - ( १ ) समवसरण के अशोकवन की एक वापी । हपु० ५७.३२ (२) उपकगिरि के स्वस्तिक की निवासिनी देवी ह
५.७०६
(३) नन्दीश्वर द्वीप की एक वापी । मपु० १६.२१४
(४) समवसरण में निर्मित मानस्तम्भ के निकट विद्यमान एक वापी । मपु० २२.११० नन्द्यावत - ( १ ) एक नगर । यहाँ के राजा अतिवीर्य ने विजयनगर के राजा पृथ्वीधर को लिखा था कि वह राम के भ्राता भरत को जीतने में उसकी सहायता करे । पपु० ३७.६
(२) राम-लक्ष्मण का वैभव सम्पन्न भवन । पपु० ८३. ३-४
(३) पश्चिम विदेहक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत का एक नगर । यहाँ के राजा नन्दीश्वर की कनकाभा रानी से नयनानन्द नाम का पुत्र हुआ था । पपु० १०६.७१-७२
(४) सौधर्म युगल का छब्बीसवाँ पटल । हपु० ६.४७
(५) रुचक पर्वत की पूर्व दिशा में विद्यमान एक कूट। यह एक हजार योजन चौड़ा और पांच सौ योजन ऊँचा है यहाँ पद्मोत्तर देव रहता है । हपु० ५.७०१-७०२
(६) तेरहवें स्वर्ग का विमान मपु० ९.१९१, ६२.४१० (७) भरत चक्रवर्ती की शिविर-स्थली । मपु० ३७.१४७ (८) सहस्राम्रवन का एक वृक्ष । तीर्थंकर शान्तिनाथ ने इस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया था । मपु० ६३.४८१, ४८६
( ९ ) राजा सिद्धार्थ का राजभवन । कारिणी को इसी भवन में सोलह स्वप्न
महावीर की जननी प्रियदिखायी दिये थे । मपु०
७४.२५४-२५६ नभसेन - हरिषेण का पुत्र । यह कुरुवंशी राजा था । हपु० १७.३४ नभस् - ( १ ) श्रावण मास । हपु० ५५.१२६
(२) अवगाहदान में समर्थ आकाश । पपु० ४.३९, हपु० ५८.५४ नभस्तडित् — दैत्यों के अधिपति मय का मन्त्री । पपु० ८.२८, ४३-४४
Jain Education International
नन्दीश्वरमह - नमिनाथ नभस्तिलक - ( १ ) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का एक नगर। यह विनमि की निवासभूमि या पु० ९.१३२-१२२, २५.४
(२) विजयार्ध की दक्षिणश्र ेणी का इकतालीसवाँ नगर । हपु०
२२.९८
(३) एक पर्वत । इस पर्वत पर अजितसेन अपना शरीर छोड़कर सोलहवें स्वर्ग में अथा पु० ५४.१२५-१२६ नमस्कार - पद - नमस्कार (णमोकार ) मन्त्र । इसकी साधना में मस्तक पर सिद्ध और हृदय में बर्हन्त परमेष्ठी को विराजमान कर आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी का ध्यान किया जाता है । इससे मोह और तज्जनित अज्ञान का विनाश हो जाता है । मपु० ५.२४५-२४९ वीवच० १८.९
नाम (१) महापुराणकार के अनुसार वृषभदेव के पहतर और हरिवंश पुराणकार के अनुसार सतत्तर गणधर । मपु० २.४३, ६५, हपु० १२.६८ ये वृषभदेव के साले कच्छ राजा के पुत्र थे। वृषभदेव से ध्यानस्थ अवस्था में भोग और उपभोग की सामग्री की याचना करने पर धरणेन्द्र ने इन्हें विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी का राज्य और दिति तथा अदिति ने सोलह निकायों की अनेक विद्याएँ प्रदान की थी । मपु० १८.९१ ९५, १९. १८२, १८५, ३२.१८०, पपु० ३.३०६३०९.० ९.१२८ विजया की उत्तरणी में विद्यमान मनोहर देश में रत्नपुर नगर के राजा पिंगलगांधार और रानी सुप्रभा की पुत्री विभा इनकी पत्नी थी इनके रवि सोम पुरू, अंशुमान् हरि जय, पुलस्त्य, विजय, मातंग तथा वासव आदि कान्तिधारी अनेक पुत्र तथा कनक जी और कनकमंजरी नामक दो पुत्रियाँ थीं इन्होंने भरतेश की अधीनता स्वीकार की थी और अपनी बहिन सुभद्रा का भरतेश से विवाह कर दिया था। इसके पश्चात् इन्होंने संसार से विरक्त होकर जिनदीक्षा धारण कर ली थी। इनके पुत्रों में मातंग के अनेक पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र हुए। अन्त में वे अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष गये। मपु० ३२.१८१, ४०,२६१-२६३, हपु० २२.१०७-११०
(२) विजयार्ध पर्वत के निवासी पवनवेग का पुत्र । यह जाम्बवती का हरण कर लेना चाहता था। इसके इस कुविचार को ज्ञातकर जाम्बव ने इसे मारने के लिए माक्षिकलक्षिता नाम को विद्या भेजी थी किन्तु कुमार के मामा किन्नरपुर के राजा यक्षमाली विद्याधर ने उस विद्या को छेद दिया था। अनन्तर जम्बूकुमार के आक्रमण करने पर इसे वहाँ से भाग जाना पड़ा था । मपु० ७१.३७० ३७४
(३) एक यादव नृप । कृष्ण जरासन्ध युद्ध में यह समुद्र विजय की रक्षा पंक्ति में था । पु० ५०.१२१
नमिनाथ -- अवसर्पिणी काल के दुःषमा- सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष और इक्कीसवें तीर्थकर ये जम्बूद्वीप में बंग देश की मिथिला नगरी के राजा विजय और रानी वप्पिला के पुत्र थे । ये आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की द्वितोया को रात्रि के पिछले पहर में अश्विनी नक्षत्र में गर्भ में आये तथा आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org