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धूमवेग बृतराष्ट्र
क्र०
१.
२.
३.
४. ५.
नाम इन्द्रक
बिल
नाम इन्द्रक
तम
भ्रम
झष
अन्ध्र
तम
भ्रम
झष
अर्त/ अन्ध
तमिस्र
कुल ५
उत्कृष्ट स्थिति
११३ सागर
१२५ सागर
१४५ सागर
१५ सागर
महादिशावों के बिलों की सं०
३६
३२
२८
२४
२०
१४०
इस पृथिवी में २.९९, ७२५ को विल होते है सारे बिलों को संख्या तीन लाख है । पु० ४.१३८ - १४४ तम इन्द्रक बिल के पूर्व में निरुद्ध, पश्चिम में अतिनिरुद्ध, दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन महानरक हैं । इन्द्रक बिलों की मुटाई तीन कोस श्रेणिबद्ध बिलों की चार कोस और प्रकीर्णकों की सात कोस होती हैं । हपु० ४.१५६,२२२ इन्द्रक बिलों की स्थिति इस प्रकार है
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विदिशाओं के बिलों की सं०
जघन्य स्थिति
१० सागर,
११ सागर,
१२ वागर
१४५ सागर
३२
२८
२४
२०
१६
१२०
ऊंचाई
७५ घनुष
८७ धनुष
१०० घनुष
१११ धनुष
२ हाथ १२५ धनुष
तमिस्र
१७ सागर
१५ सागर,
हपु० ४.२८६-२९०, ३३३ ३३५ इन्द्रक बिल तिकोने और तीन द्वारवाले तथा श्र ेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल दो से सात द्वारवाले होते हैं । इसके साठ हजार बिल संख्यात योजन विस्तारवाले तथा दो लाख चालीस हजार बिल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं । इस पृथिवी के ऊपरी भाग में नील और अधोभाग में कृष्ण लेश्या होती है। यहाँ नारकी उष्ण और शीत दोनों प्रकार के कष्ट सहते हैं । इस पृथ्वी के निगोदों में नारकी अत्यन्त दुःखी होकर एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं। सिंह इस पृथिवी के आगे नहीं जन्मता । यहाँ से निकले जीव पुनः यहाँ तीन बार तक आ जाते हैं । यहाँ से निकलकर जीव संयम तो धारण कर लेते हैं। किन्तु वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते । मोक्ष पाने के लिए उन्हें आगे जन्म ग्रहण करने पड़ते हैं। मपु० १०.९७ ० ४.१६५, ३४४, ३४६, ३५२, ३५९, ३७४-३७९
घूमवेग -- श्रीपाल के पूर्वभव का वैरी एक विद्याधर । इसने अपने सेवकों को आदेश दिया कि वे श्रीपाल को श्मशान में ले जाकर पाषाण-शस्त्रों से मार दें। इन शस्त्रों से मारे जाने पर भी श्रीपाल आहत नहीं हुआ, पत्थर उसे फूल बन गये। इसने श्रीपाल को एक अग्निकुण्ड में भी डाल दिया किन्तु इसके पास की महौषधि की शक्ति से वह अग्नि भी
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जैन पुराणकोश: १८५
शान्त हो गयी और श्रीपाल अग्निकुण्ड से निकल गया । मपु० ४७.८९-९०, १०७-११०
धूमसिंह विजया पर शिवमन्दिर नगर के राजपुत्र अमितगति का
मित्र एक विद्याधर । इसने राजकुमार अमितगति को कीलकर उसकी प्रेयसी को हर लिया था, , जिसे 'राजकुमार ने बाद में छुड़ा लिया था।
हपु० २१.२२-२८
धूलिसाल - समवसरण के बाहरी भाग में रत्नों को धूलि से निर्मित वलयाकार एक परकोटा । रत्न- धूलि के वर्णों के अनुसार यह कहीं काला, कहीं पीला, कहीं मूंगे के समान लाल, कहीं हरित वर्ण का होता है । इसके बाहर चारों दिशाओं में स्वर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित चार तोरणद्वार होते हैं। ऊँचे-ऊँचे मानस्तम्भ इन्हीं के भीतर निर्मित किये जाते हैं । मपु० २२.८१-९२, ३३.१६० वीवच० १४.७१-७४
धृत - ( १ ) कुरुवंश का एक राजा । यह व्रतधर्मा का उत्तराधिकारी था । इसके बाद धारण राजा हुआ था। हपु० ४५.२९ (२) कुरुवंशी राजा घृतमान् के का पिता था। हपु० ४५.३२-३३
बाद हुआ एक नृप । यह धृतराज
तलेज प्रतोदय का पुत्र और भूत का पिता कुरुवंशी एक राजा हपु० ४५.३२
तधर्मा राजा तपास केला हुआ एक कुरुवंशी राजा पु०
-
४५.३२
धृतपद्म - अनेक कुरुवंशी राजाओं के पश्चात् हुआ एक राजा । हपु० ४५.१२
धृतमान् - राजा धृतयश के पश्चात् हुआ एक कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.३२
घृतयश—कुरुवंशी राजा धृततेज के पश्चात् हुआ एक कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.३२
धूतरथ - महारथ के बाद हुआ कुरुवंशी राजा । हपु० ४५.२८ धृतराज - राजा घृत के पश्चात् हुआ एक कुरुवंशी राजा । इसकी अम्बिका, अम्बालिका और अम्बा ये तीन रानियाँ थीं। इनमें अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और अम्बा से विदुर ये तीन पुत्र हुए थे। रुक्मण इसका भाई था । हपु० ४५.३३-३५ महापुराण और पाण्डवपुराण के अनुसार धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ये तीनों राजा व्यास और उनकी स्त्री सुभद्रा के पुत्र थे । मपु० ७०.१०३, पापु० ७.११४-११७ धृतराष्ट्र हस्तिनापुर नगर के कौरववंशी राजा धृतराज और उसकी रानी अम्बिका का ज्येष्ठ पुत्र, पाण्डु और विदुर का अग्रज | इसका विवाह नरवृष्टि की पुत्री गान्धारी से हुआ था तथा इससे इसके दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए थे । मपु० ७०.१०१. ११७-११८, हपु० ४५.३३-३५ पाण्डवपुराणकार ने गान्धारी के पिता का नाम भोजकदृष्टि दिया है पापु० ८.१०८-१११, १८७-२०५ मुनि से कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने पुत्रों का मरण ज्ञातकर, पुत्रों और निज को
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