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वसक-वर्ष
जैन पुराणकोश : १५९ थे। पिता के प्रिय न होने से ये युवराज पद प्राप्त नहीं कर सके । इस दमक–पूर्व विदेहक्षेत्र के पुष्कलावती देश में वीतशोक नगर का निवासी पद की प्राप्ति में मंत्री को बाधक जानकर उस पर बैर बाँध संयमी एक वैश्य, देविला का पिता । मपु०७१.३६०-३६१ हुए और आयु के अन्त में मरकर सौधर्म स्वर्ग में सुविशाल नामक दमना-सह्य पर्वत के पास की एक नदी । यहाँ भरतेश की सेना आयी विगान में देव और वहाँ से च्युत होकर बलभद्र हुए । मपु०६६.१०२- थी। मपु० ३०.५९ १२२, पपु० २०.२०७, २१२-२२८, हपु० ५३. ३८, ६०.२८९, दमधीषज-शिशुपाल । हपु० ४२.९३-९४ ५३०, वीवच० १८.१०१, ११२
दमतीर्थेश-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६४ (२) तीर्थकर चन्द्रप्रभ के प्रथम गणधर। मपु० ५४.२४४ अपर- दमघर-सागरसेन मुनि के साथी एक गगनविहारी मुनि । राजा वज्रजंघ नाम दत्तक । हपु० ५३.३८
और रानी श्रीमती ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। (३) तीर्थकर नमिनाथ को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्तकर्ता । अपरनाम दमवर । मपु० ८.१६७-१७९ मपु० ६९.३१, ५२-५६
दमयन्त-जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के मन्दर नगर का निवासी प्रियनन्दी दत्तक-(१) सातवा नारायण, अपरनाम दत्त । हपु० ५३.३८ दे० दत्त-१ और उसकी जाया नाम की प्रिया का पुत्र । यह मुनि से धर्मोपदेश
(२) समस्त शास्त्रों के पारगामी, सप्त ऋद्धिधारी, तीर्थकर सुनकर सम्यग्दर्शन पूर्वक मरा था और स्वर्ग में देव हुआ था। पपु० चन्द्रप्रभ के प्रथम गणधर । हपु० ६०.३४७-३४९ अपरनाम दत्त । १७.१४१-१४२, १४७-१४८ मपु० ५४.२४४
दमरक-राजगृह नगर-निवासी एक पुरुष । यह वसुदेव का पूर्वभव का बत्तवक्त्र-एक राजा । वसुदेव ने इसे युद्ध में पराजित किया था । हपु०
मामा था। हपु० १८.१२७-१३१
वमवर-चारण ऋद्धिधारी एक मुनि । ये राजा कर्ण और बलभद्र नन्दिदत्तवती-एक आर्यिका । पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र की रानी हिरण्यवतो मित्र के दीक्षागुरू थे। चिन्तागति, मनोगति और चपलगति तीनों ने इससे दीक्षा ली थी। हपु० २७.५६
विद्याधर भाई भी दौड़ प्रतियोगिता में प्रीतिमती से पराजित होकर दत्ति-द्विज की छः वृत्तियों में एक वृत्ति-दान । इसके चार भेद किये इन्हीं से दीक्षित हुए थे। विद्याधरों के अधिपति अमिततेज ने इन्हें गये है-दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति । हपु० ३८. आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। मपु० ६२.४०१-४०२, ६३.
६, २८०, ७०.३६, पपु० २०.२३४, हपु० ३४.३२, ५२.८९, पापु० दषिपर्ण तीर्थकर धर्मनाथ का दीक्षावृक्ष । पपु० २०.५१
४.३३८, ५.६९ बधिमुख-(१) एक विद्याधर । इसने मदनवेगा का विवाह वसुदेव के ,
'बमितारि-एक प्रतिनारापण। यह पूर्व विदेह क्षेत्र में शिवमन्दिर नगर साथ कराया था। हपु० २४.८४
का राजा था। नारद के कहने पर प्रभाकरी नगरी के राजा बलभद्र (२) वसुदेव का सारथी। इसने रोहिणी स्वयंवर के समय हुए
अपराजित तथा नारायण अनन्तवीर्य की सुन्दर दो नर्तकियों के लिए युद्ध में वसुदेव का रथ-संचालन किया था। हपु० ३१.६७, १०३ (३) नन्दीश्रर द्वीप की वापियों के मध्य में स्थित चार पर्वत । ये
इसने नारायण अनन्तवीर्य से युद्ध किया तथा अपने ही चक्र के द्वारा प्रत्येक दिशा को चारों वापियों के मध्य सफेद शिखरों से युक्त,
उस युद्ध में मारा गया। यह राजा कीर्तिधर केवली का पुत्र था। -स्वर्णमय. एक-एक हजार योजन गहरे, दस-दस हजार योजन चौड़े,
मन्दरमालिनी इसकी रानी थी। इसी रानी से इसके कनश्री नाम की लम्बे तथा ऊँचे ढोल जैसे आकार के सोलह होते है । हपु० ५ ६६९
एक कन्या तथा सुघोष और विद्युदंष्ट्र नाम के दो पुत्र हुए थे। मपु० ६७० इन पर्वतों के शिखरों पर जिन-मन्दिर है। ये मन्दिर पूर्वाभि
६२.४३३-४८९, ५००, ५०३, पापु० ४.२५२-२७५ मुख, सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊंचे ____वमी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८९ है। हपु० ५.६७६-६७७
वमीश्वर–सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१११, (४) एक द्वीप । पपु० ५१.१
१७८ (५) दधिमुख द्वीप का एक नगर । पपु० ५१.२
दयागर्भ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८८ बन्तपुर-कलिंग देश का नगर । मपु०७०.६५
दयावत्ति-दयापूर्वक मन, वचन और काय की शुद्धि के साथ अनुग्रह बन्ती-(१) भरतक्षेत्र के अन्त में महासागर का निकटवर्ती, पूर्व-दक्षिण करने योग्य प्राणियों के भय दूर करना । मपु० ३८.३६
(आग्नेय) दिग्भाग में स्थित एक पर्वत । महेन्द्र विद्याधर की आवास- दयाध्वज-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०६ भूमि हो जाने पर इसका नाम महेन्द्रगिरि भी था । हपु० १५.११-१४ दयानिधि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१६
(२) आखेट के समय प्रयुक्त होनेवाला हाथी । मपु० २९.१२७ दयायाग-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८३ - बन्वशूक-फणयुक्त एक शस्त्र । इसका गरुडास्त्र से निवारण किया जाता दर्दुराद्रि-भरतखण्ड के दक्षिण का एक पर्वत । भरतेश के सेनापति ने है। पपु० ७४.१०८-१०९
यहाँ के राजा को जीता था । मपु० २९.८९ -बम-जितेन्द्रियता । मपु० ६०.२२
दर्प अहंकार । विघ्नों की शान्ति के लिए इसका विनाश आवश्यक है।
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