________________
१५४ मैनपुराणको
से . कापोत लेश्याघारी, आर्तध्यानी और मिथ्यादृष्टि मानव पाते दूर, हैं। इस गति में जीव आजीवन पराधीन होकर विविध दुःख भोगते है । इस गति में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव उत्पन्न होते हैं । वे यहाँ चिरकाल तक दुःख भोगते हैं । मपु० १७.२८, पपु० २.१६३-१६६, ५.३३१-३३२, ६.३०५, पु० ३.१२०-१२१, चीच० १७.७३-७७ इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है । भोगभूमिज तिर्यचों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य स्थिति एक पल्य है । इस योनि में जन्म लेकर भी संज्ञी पंचेन्दिय जीव यथाशक्ति नियम आदि धारण करते हैं जिससे उन्हें अगले जन्म में मानवगति मिलती है । हपु० २.१३५, ३.१२१-१२४
तिर्यग्व्यतिक्रम- दिग्व्रत का एक अतिचार समान धरातल की सीमा
का उल्लंघन करना । हपु० ५८.१७७
तिलक - (१) दोनों भौंहों के मध्य ललाट का सुगन्धांकन । मपु० १४.६, पपु० ३. २००
(२) वृषभदेव की दीक्षाभूमि । यह स्थान वृषभदेव के प्रजा से दूर हो जाने से "प्रजाग" अथवा उनके द्वारा प्रकृष्ट त्याग किये जाने से "प्रयाग" नाम से प्रसिद्ध हुआ । मपु० ३.२८१
(३) तीर्थंकर कुन्नाव का चैत्यवृक्ष मपु० ६४.४२-४२०
२०.५३
(४) राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.१३
(५) अयोध्या नगरी के निवासी वज्रांक और उसकी भार्या मकरी का पुत्र । इसके भाई का नाम अशोक था । अन्त में यह दीक्षित हो गया था । पपु० १२३.८६-१००
(६) घातकीखण्ड के ऐरावत क्षेत्र का एक नगर । मपु० ६३.१६८
तिलकसुन्दरी - महापुरी नगरी के राजा सुप्रभ की रानी और धर्मरुचि की जननी धर्मचि पूर्वभव में सनत्कुमार चक्रवर्ती या १० २०. १४७-१४८
तिलका - (१) मथुरा के सेठ भानु के पुत्र भानुकीर्ति की स्त्री । हपु० ३३.९६-९९
(२) विजयार्ध को उत्तरश्रेणी की सत्ताईसवीं नगरी । मपु० १९. ८२,
८७
तिलकानन्द - एक मासोपवासी मुनि । कुमार लोहजंध ने इनको वन में आहार दिया था और पंचाश्चर्यं प्राप्त किये थे । हपु० ५०.५९-६० तिलपथ — कुरुजांगल देश का एक समृद्ध नगर । पापु० १६.५ तिवस्तुक—एक नगर यहाँ वसुदेव आया था। पु० २४.२ तिलोत्तमा - ( १ ) मुनि भक्त एक देवी । मपु० ६३.१३६-१३७
(२) चन्द्राभ नगर के राजा धनपति की रानी, पद्मोत्तमा की जननी । मपु० ७५.३९१ तीक्ष्ण-अवसर्पिणी काल के अन्त में सरस और विरस मेघों के क्रमशः सात-सात दिन बरसने के पश्चात् सात दिन पर्यन्त वर्षाकारी मेघ । मपु० ७६.४५२-४५३
Jain Education International
तिर्यग्युतिक्रम- योगिर
तीर्णकर्ण - भरतक्षेत्र के उत्तरवर्ती आर्यखण्ड का एक देश । यहाँ भरतेश का भाई राज्य करता था। इसने भरतेश की अधीनता स्वीकार नहीं की और दीक्षित हो गया । हपु० ११.६७
तीर्थ - (१) मोक्ष प्राप्ति का उपाय । संसार के आदि धर्म तीर्थ के प्रवतंक वृषभदेव थे । मपु० २.३९, ४.८ हपु० १.४, १०.२ (२) नदी या सरोवर का घाट । मपु० ४५.१४२
(३) तीर्थंकर की प्रथम देशना के आरम्भ से आगामी तीर्थंकर की प्रथम देशना तक का समय । मपु० ५४.१४२, ६१.५६ तीर्थंकर - धर्म के प्रवर्तक । भरत और ऐरावत क्षेत्र में इनकी संख्या चौबीस चौबीस होती है और विदेह क्षेत्र में बीस । मपु० २.११७ अपि काल में हुए चोबीस तीर्थकर ये है-वृषभ, अजित शंभव अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त शीतल, यांस, वासुपूज्य विमल, अनन्त, धर्म शान्ति, कुन्यु वर मल्लि मुनिसुव्रत, नमि नेमि पाए और महावीर ( सम्मति और वर्तमान) । मपु० २.१२७-१३३. हपु० २.१८, वीवच० १८.१०१-१०८ इनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं । इन कल्याणकों को देव और मानव अत्यन्त श्रद्धा के साथ मनाते हैं । गर्भावतरण से पूर्व के छः मासों से ही इनके माता-पिता के भवनों पर रत्नों और स्वर्ण की वर्षा होने लगती है । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा आठ वर्ष की अवस्था में देशव्रती हो जाते हैं । मपु० १२.९६-९७, १६३, १४. १६५, ५३.३५, हपु० ४३.७८ उत्सर्पिणी के दुषमा- सुषमा काल में भी जो चौबीस तोर्थकर होंगे वे हैं - महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत्र, उदक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती विजय, विमल, देवपाल और अनन्तवीर्य । इनमें प्रथम तीर्थकर सोलहवें कुलकर होगे । सौ वर्ष उनकी आयु होगी और सात हाथ ऊँचा शरीर होगा। अन्तिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व होगी और शारीरिक अवगाहन पांच सौ धनुष ऊँची होगी । मपु० ७६.४७७-४८१, पु० ६६.५५८-५६२ तोर्थंकर प्रकृति - नाम कर्म की एक पुण्य प्रकृति । इसी का बन्ध कर मानव तीर्थंकर होता है। इस प्रकृति के बन्ध में सोलहकारण भावनाएं हेतु होती हैं । हपु० ३९.१
तीर्थकृत - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.११२ ती भावना गृहस्य की शेपन क्रियाओं में बीसवीं क्रिया । इसमें
2
सम्पूर्ण आचारशास्त्रों का अभ्यास और श्रुतज्ञान का विस्तार किया जाता है । मपु० ३८.५५-६३, १६४-१६५
तीव्र - राम का पक्षधर एक विद्याधर नृप । पपु० ५४.३४-३५ तुरंग - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९८ तु गवरक - पश्चिम सागर तक फैला हुआ पर्वत । यहाँ भरतेश की सेना आयी थी । मपु० ३०.४९
तुंगीगिरि - एक पर्वत । यहाँ जरत्कुमार तथा पाण्डवों के साथ बलदेव ने कृष्ण का दाह संस्कार किया था। जरत्कुमार ने राज्य और परिग्रह
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org