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सट-तपनीयक
जैन पुराणकोश : १५१
बाण से लगी हुई आग को देखकर यह क्षुब्ध हुआ। अर्जुन से इसने युद्ध किया। इस युद्ध में यह परास्त हुआ। पापु०१६.७७-९०
(३) बढ़ई। आदिपुराण कालीन शिल्पी। यह लकड़ी का काम करता है । आ० पु० प्रशस्ति तट-गन्धर्वगीत नगर के राजा भानुरक्ष के पुत्रों द्वारा विजयाध पर्वत
पर बसाये गये दस नगरों में सातवां नगर । पपु० ५.३६७, ३७३ ।। तडित्केश-लंका का एक राजा । श्रीचन्द्रा इसकी रानी थी। यह किष्कुनगर के राजा महोदधि विद्याधर का अनन्य मित्र था। महोदधि के दीक्षित हो जाने के समाचार पाने से यह सुकेश नामक पुत्र को अपना राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया और इसने रत्नत्रय की आराधना को । समाधिपूर्वक देह त्याग कर यह देव हुआ। इसका अपरनाम विद्युत्केश
था। पपु० ६.२१८.२४२, ३३२-३३४ ।। तडित्पिग-इस नाम का एक देव । इसने युद्ध में रावण के शत्रु इन्द्र
विद्याधर की सहायता की थी । पपु० १२.२०० तडित्प्रभ-निषध पर्वत से उत्तर की ओर नदी के मध्य में स्थित पाँच महाह्रदों में एक महाह्रद । इसका मूलभाग वज्रमय है । यहाँ कमलों
पर बने भवनों में नागकुमार देव रहते हैं । हपु० ५.१९६-१९७ तडिदंगव-विजयाध पर्वत का निवासी एक विद्याधर । श्रीप्रभा इसकी
स्त्री और उदित इसका पुत्र था । पपु० ५.३५३ तडिद्वक्त्र-विद्याधरों का राजा । यह राम का महावेगशाली पक्षधर था।
पपु० ५४.३४-३६ तडिन्माला-(१) कुम्भपुर नगर के राजा महोदर और रानी सुरूपाक्षी
की पुत्री । यह भास्करश्रवण (भानुकर्ण) से विवाहित हुई थी। पपु० ८.१४२-१४३
(२) रावण की पत्नी । पपु० ७७.१४ तत-तार के बजाये जानेवाले वीणा आदि वाद्य । पपु० १७.२७४,
२४.२०-२१, हपु० ८.१५९, १९.१४२-१४३ । तत्त्व-जीव आदि सात तत्त्व । तत्त्व सात है-जीव, अजीव, आस्रव,
बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । मपु० २१.१०८, २४.८५-८७, हपु०
५८.२१, पापु० २२.६७, वीवच० १६.३२ तत्वकथा-मोक्षमार्ग में प्रेरित करनेवाली कथा । यह कथा जीव-अजीव
आदि पदार्थों का विवेचन करनेवाली, वैराग्य उत्पादिनी, दान, पूजा, तप और शोल का महात्म्य बतानेवाली तथा बन्ध-मोक्ष और उनके कारणों तथा फलों का प्ररूपण करनेवाली होती है। इसका अपरनाम
धर्मकथा है । मपु० ६२.११-१४ तत्त्वार्थ-भावना-ध्यानशुद्धि की हेतु भूत ज्ञानशुद्धि में सहायक चिन्तन ।
यह चित्त की शुद्धि के लिए उपादेय है। मपु० २१.२६ तद्धित-पदगत गन्धर्व की एक विधि । हपु० १९.१४९ तद्विहार-गर्भान्वय क्रिया का इक्यानवाँ भेद । इसमें धर्मचक्र को आगे ___ करके भगवान् का विहार होता है । मपु० ३८.६२, ३०४ तदुभयप्रायश्चित्त-प्रायश्चित्त के नौ भेदों में तीसरा भेद। इसमें
आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों से चित्त की शुद्धि होती है। हपु० ६४.३२-३४
तनयसोम-नमि का पुत्र । हपु० २२.१०७ तनुत्रक-शरीर की रक्षा करनेवाले लोहे के टोप और कवच आदि ।
मपु० ३१.७२, ३६.१४ ।। तनुनिमुक्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०
२५.२१० तनुवात-(१) लोक का चारों ओर से आवर्तक तीसरा वायुमण्डल (वातवलय) । हपु० ४.३३-३५, ५.१
(२) ऊर्चलोक के अन्त में तनुवालवलय का अन्तिम ५२५ धनुष प्रमाण सिद्धों का निवास क्षेत्र । मपु० ६६.६२ तनुसंवरण-जरायुपटल। यह गर्भावस्था में शिशु के शरीर से लिपटी
हुई मांस की एक झिल्ली होती है । मपु० ३.१५० तनुसन्ताप-बाह्य तप का पांचवां भेद । इसे कायक्लेश भी कहते हैं।
मपु० १८.६७-६८ । तनूदरी--राजा प्रवर और रानी आवली की पुत्री। रावण ने इसका
अपहरण करके अपनी रानी बनाया था। पपु० ९.२४, ७७.९-१३ तन्तुचारण-एक चारण ऋद्धि । इससे सूत अथवा मकड़ी के जाल के
तन्तुओं पर भी गमन किया जा सकता है । मपु० २.७३ तन्त्र-स्व-राष्ट्र की व्यवस्था । यह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार ___ की जाती थी। मपु० ४१.१३७ तन्त्रकृत्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२९ तप-(१) श्रावक के छ: कर्मों में छठा कर्म । इसमें शक्ति के अनुसार
उपवास आदि से मन, इन्द्रियसमूह और शरीर का निग्रह किया जाता है । निर्जरा के लिए यह आवश्यक होता है। मपु० २०.२०४, ३८. २४,४१, ४७.३०७, ६३.३२४, पापु० २३.६६ इसके दो भेद होते है-बाह्य और आभ्यन्तर । इनमें अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यात, रस परित्याग, विविक्त-शय्यासन और कायक्लेश ये छः बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छः अन्तरंग तप हैं। नियम भो तप है। पपु० १४.२४२-२४३, हपु० २.१२९, ६४.२०, वीवच० ६.३१-५४
(२) एक ऋद्धि । इसके उग्र, महोग्र, तप्त आदि अनेक भेद हैं । मपु० ३६.१४९-१५१ तपन-(१) मेघा नामक तीसरी नरकभूमि के नौ इन्द्रक बिलों में तीसरा
इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में बानवें और विदिशाओं में अठासी श्रेणीबद्ध बिल है । हपु० ४.८०-८१, १२०
(२) आदित्यवंशी राजा तेजस्वी का पुत्र । यह अतिवार्य का पिता था । संसार से विरक्त होकर इसने निग्रन्थ-दीक्षा ले ली थी। पपु०
५.४-१०, हपु० १३.९ तपनकूट-विद्युत्प्रभ पर्वत का पांचवां कूट । हपु० ५.२२२-२२३ तपनीयक-(१) मानुषोत्तर पर्वत की आग्नेय विदिशा का एक कूट । यह स्वातिदेव की निवासभूमि है । हपु० ५.६०१, ६०६
(२) सौधर्म और ऐशान स्वर्ग का उन्नीसवाँ पटल । हपु० ४.४४
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