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१४४ जैन पुरानकोश
किया गया था, तथा अलका के मृत पुत्र इसकी माता के पास लाये गये थे । यह कार्य नगमेष देव ने सम्पन्न किया था । मपु० ७१.२९६ हपु० ३३.१७०, ३५.४-९ इसकी तथा इसके समस्त भाईयों की बत्तीस-बत्तीस रूपवती स्त्रियाँ थीं। तीर्थंकर नेमिनाथ के समवसरण में पहुँचकर उनसे छहों भाइयों ने धर्म श्रवण किया और संसार से विरक्त होकर ये सभी दीक्षित हो गये। इन्होंने घोर तप किया और गिरनार पर्वत से मुक्ति को प्राप्त हुए। हपु० ५९.११५ १२४, ६५. १६-१७ पाँचवें पूर्वभव में यह मथुरा के सेठ भानु और उसकी स्त्री यमुना का शूरसेन नामक सातवाँ पुत्र था । समाधिमरण पूर्वक मरण होने से यह त्रयस्त्रिश जाति का उत्तम देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर विजयपत के मल्यालोक नगर में राजा चित्रचूल और उनकी रानी मनोहरी का हिमचूल नामक पुत्र हुआ। इस पर्याय में भी समाधिपूर्वक मरण कर यह माहेन्द्र स्वर्ग में सामानिक जाति का देव हुआ और यहाँ से चयकर हस्तिनापुर नगर राजा गंगदेव और रानी नन्दियशा का नन्दिषेण नामक पुत्र हुआ । जीवन के अन्त में मुनि दीक्षा लेकर इसने तप किया तथा मरकर जितशत्रु की पर्याय में आया । हपु० ३३.९७-९८, १३०-१४३, १७० - १७१
में
(३) हरिवंशी राजा जितारि का पुत्र । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थं की छोटी बहिन इसे ही विवाही गयी थी। यह अपनी रानी यशोदया से उत्पन्न यशोदा नाम की पुत्रो का मंगल विवाह महावीर के साथ देखने का उत्कट अभिलाषी था किन्तु महावीर के दीक्षित हो जाने से इसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। तब यह भी दीक्षित हो गया तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गया । हपु० १.१२४, ३. १८७-१८८, ६६.५-१४
(४) श्रावस्ती नगरी का इक्ष्वाकुवंशी एक नृप । यह मृगध्वज का पिता था। इसने भद्रक नामक भैंसे का पैर काटने के अपराध में अपने पुत्र को मार डालने का आदेश दिया था । मन्त्री ने इसे मारा तो नहीं किन्तु वन में ले जाकर इसे मुनि दीक्षा दिला दो आयु के अन्त में यह भी दीक्षित हो गया था । हपु० २८.१४-२७, ४९
(५) कलिंग देश के कंचनपुर नगर का राजा । यह जीव-हिंसा का विरोधी था । राज्य में इसने अभयदान की घोषणा करायी थी । हपु० २४.११-२३
(६) विदेह क्षेत्रस्थ पुण्डरीकी नगरी के सेठ समुद्रदत्त तथा उसकी स्त्री सर्व दयिता का पुत्र । इसके माता-पिता के मिलन से अपरिचित रहने के कारण जब यह गर्भ में था, इसकी माँ को इसके मामा सर्वदयित ने भी शरण नहीं दी थी। फलस्वरूप इसकी माँ अपने भाई के पड़ोस में रहने लगी थी वहीं इसे उसने जन्म दिया था। इसके मामा ने इसे कुल का कलंक जानकर अपने सेवक से दूसरी जगह रख आने के लिए कहा था किन्तु सेवक ने इसे ले जाकर इसके मामा के मित्र सेठ जयधाम को दे दिया। सेठ अपनो पत्नी को बालक देते हुए बहुत प्रसन्न हुआ था। भोगपुर नगर में इसका लालनपालन किया गया और वही इसे यह नाम मिला था। कुछ समय बाद मामा ने इसके हाथ की अंगूठी देखकर इसे पहचान लिया और
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तिरा-जिनकल्य
इसे अपनी सर्वश्री नाम की पुत्री, धन तथा सेठ का पद दे दिया तथा तथा स्वयं विरक्त हो गया । मपु० ४७.१९८-२११, २१९-२२०
(७) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की साकेत नगरी के स्वामी त्रिदशंजय का पुत्र इसका विवाह पोदनपुर की राजकुमारी विजया के साथ हुआ । तीर्थंकर अजितनाथ इन दोनों के पुत्र थे । सगर नामक चक्रवर्ती के पिता विजयसागर के ये अग्रज थे । मपु० ४८.१९, २२, २७, १५० ५.६१-७५
(८) क्षेमांजलिपुर नगर का राजा। यह जितपद्मा का पिता था । जितपद्मा लक्ष्मण की पटरानी हुई थी । पपु० ८०.११२, ९४. १८-२३
(९) धातकोखण्ड में अलका देश की अयोध्या नगरो के राजा चक्रवर्ती अजितसेन का पुत्र । इसके पिता इसे राज्य देकर दीक्षित हो गये थे और आयु के अन्त में शरीर छोड़कर अच्युतेन्द्र हुए थे । मपु० ५४. ८६-८७, ९४-९५, १२२-१२५
(१०) तीर्थंकर अजितनाथ के तोर्थ में हुआ दूसरा रुद्र । पु०६०.५३४
जिताक्ष- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५ २०८ जितानंग - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेप का एक नाम । मपु० २५.२१६ जितान्तक- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १६९
जितामित्र - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १६९
जितारि - ( १) हरिवंश का एक नृप। यह राजा शत्रुसेन का पुत्र और जितशत्रु का पिता था। इसो जितशत्रु का विवाह तीर्थंकर महावीर के पिता सिद्धार्थ की छोटी बहिन के साथ किया गया था। हपु० ६६.५-६
(२) तीर्थकर सम्भवनाथ का पिता । यह श्रावस्ती का राजा और रानो सेना का पति था । पपु० २०.२९
जितेन्द्रिय – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १८६
जित्वर - भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४ जिन - (१) भरतेशद्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४०
(२) जिनेन्द्र | ये तीनों लोकों में मंगलस्वरूप, सुरासुरों से वन्दित और राग-द्वेषजयी होते है ये पातियाकमों के नष्ट होने से बर्हन्त, आत्मस्वरूप को प्राप्त होने से सिद्ध, त्रैलोक्य के समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से बुद्ध, तोनों कालों में होनेबाली अनन्त पर्यायों से युक्त सनस्त पदार्थों के दर्शी होने से विश्वदर्शी और सब पदार्थों के ज्ञाता होने से विश्वज्ञ हैं । इनके अनन्त चतुष्टय प्रकट होते हैं। इनके वक्ष:स्थल पर श्रीवृक्ष का चिह्न रहता है । इन पर चौसठ चंवर ढोरे जाते हैं । मपु० २१.१२१-१२३, २३.५९, पपु० ८९.२३, हपु० १.१६
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(३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०४ जिनकल्प - (१) आत्म-चिन्तन के लिए एकाकी विहार करनेवाले मुनि ।मपु० २०.१७०
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