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२४०१ पुराणकोश
(१०) नमिनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में वत्स देश की कौशाम्बी नगरी के राजा विजय और उसकी रानी प्रभाकरी का पुत्र । इसकी आयु तीन हजार वर्ष, ऊँचाई साठ हाथ और शारीरिक कान्ति तप्त स्वर्ण के समान थी । चौदह रत्न और नव निधियों सहित इसे अनेक प्रकार के भोगोपभोग उपलब्ध थे। यह ग्यारहवाँ चक्रवर्ती था । उल्कापात देखकर इसने राज्य त्यागने का निश्चय किया, तथा क्रमशः बड़े पुत्रों को राज्य देने की इच्छा प्रकट की। उनके राज्य न लेने पर तप धारण करने की उदात्त इच्छा से छोटे पुत्र को राज्य सौंपकर अनेक राजाओं के साथ वरदत्त केवली से इसने संयम धारण कर लिया था । इसे कुछ हो काल में बुतबुद्धि, तपविक्रिया, औषध और चारण ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं । अन्त में सम्मेदशिखर के चारण नामक ऊँचे शिखर पर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर यह मरा और जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुआ । मपु० ६९.७८-९१ इसने तीन सौ वर्ष कुमार अवस्था में और इतने ही वर्ष मण्डलीक अवस्था में तथा सौ वर्ष दिग्विजय में, एक हजार नौ सौ वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्था में और चार सौ वर्ष संयम अवस्था में व्यतीत किये थे । हपु० ६०.५१४
(११) वृषभदेव के गणधर व्यभसेन का यह छोटा भाई था। यह अत्यन्त बलवान् राजा था । पूर्वभवों में पहले यह लोलुप नाम का हलवाई था। फिर क्रमशः नेवला, भोगभूमि का आर्य, मनोरथ नामक देव, राजा शान्तमदन, सामानिक देव, राजा अपराजित और अहमिन्द्र हुआ । मपु० ४७. ३७६-३७७
जयसेना – (१) पातकीखण्ड में विदेह क्षेत्रस्य पुष्कलावती देश की पुण्डरीकणी नगरी के राजा धनंजय की रानी । यह बलभद्र महाबल की जननी थी । मपु० ७.८०-८२
(२) सागरसेन की पुत्री । यह विदेहक्षेत्रस्थ पुण्डरीकिणी नगरी के वैश्य सर्वदयित की पहली भार्या थी । मपु० ४७.१९३ - १९४ (३) जयावती के भाई जयवर्मा की पुत्री श्रीपाल और जयावती के पुत्र गुणपाल से इसका विवाह हुआ था । मपु० ४७.१७२, १७४- १७६
(४) जम्बूद्वीप पूर्व विदेह के वत्सकावती देश में पृथिवी नगर के राजा जयसेन की रानी । यह रतिषेण की जननी थी । मपु० ४८. ५८-५९
(५) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित बत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा नन्दन की रानी । यह विजयभद्र की जननी -थी । मपु० ६२.७५-७६
(६) वस्त्वोकसार नमर के स्वामी विद्याधर समुद्रसेन की रानी । यह 'वसन्तसेना की जननी थी । मपु० ६३.११८-११९ जयांगण - समवसरण की वापिकाओं के आगे का रमणीक स्थान । यह एक कोस लम्बा और एक योजन चौड़ा है। इसकी भूमि रत्नचूर्ण से निर्मित है। यहाँ अनेक भवन और मण्डप हैं । मण्डपों में अनेक • कथानकों के चित्र हैं। इसके मध्य में सुवर्णमय पीठ पर इन्द्रध्वज लहराता है । हपु० ७५.७५-८५
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जयसेना-अरकुमार
जया - (१) मन्त्र - परिष्कृत एक विद्या। यह धरणेन्द्र से नमि और विनमि को मिली थी। इस विद्या को रावण ने भी सिद्ध किया था । पपु० ७.३३०-३३२, हपु० २२.७०
( २ ) समवसरण की चार वापियों में तीसरी वापी । इनमें स्नान करनेवाले जीव अपना पूर्वभव जान जाते हैं। ये वापियाँ सदैव जल से भरी रहती हैं । हपु० ५७.७३-७४
(३) भरतक्षेत्र में पृथिवीपुर नगर के राजा यशोधर की रानी । यह जयकीर्तन की जननी थी । पपु० ५.१३८ (४) चम्पापुरी के राजा वसुपूज्य की रानी वह तीर्थंकर वासुपूज्य की जननी थी । पपु० २०.४८ इसका दूसरा नाम जयावती था । मपु० ५८.१७-२०
जयाचार्य अन्तिम तव भद्रबाहु के पश्चाद एक सौ तेरासी वर्ष की अवधि में हुए दशपूर्वधारी द्वादशांग का अर्थ कहने में कुशल, भव्यजनों के लिए कल्पवृक्ष, जैनधर्म के प्रकाशक ग्यारह आचार्यों में चतुर्थ आचार्य । मपु० २.१४१-१४५, ७६.५२१-५२४ जयाजिर - समवसरण की वापिकाओं के आगे का सुशोभित जयांगण । हपु० ५०.७५- ७९, ८३-८५ दे० जयांगण
जयावती - (१) श्रीपाल को पत्नी । इससे गुणपाल नाम का पुत्र हुआ । मपु० ४७.७०
(२) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत्वक्षेत्र में सुरम्य देश के पोदनपुर नगर के राजा प्रजापति की रानी, प्रथम बलभद्र विजय की जननी । मपु० १७.८४-८९ ७४.१२०-१२१ वीच० १.६१-६२
(३) तीर्थंकर वासुपूज्य की जननी । मपु० ५८.१७-२० दे० जया (४) राजा उग्रसेन की रानी, राजीमति (राजुल) की जननी । मपु० ७१.१४५
(५) राजा सत्यंधर के सेनापति विजयमति की भार्या, देवसेन की जननी । मपु० ७५.२५६-२५९
(६) पातकीखण्ड द्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र में हुए राजा अरिजय की रानी, क्रामर और धन ति की जननी । पपु० ५.१२८- १२९ जयावह - विजयार्ध की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में बत्तीसव नगर । हपु० २२.८८
ज्योत्तरा समवसरण के सप्तपर्ण वन की छः वापियों में छठी वापी । हपु० ५७.३३
जरत् - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२४ जरत्कुमार राजा वसुदेव और उसक रानी जीरा का ज्येष्ठ पुत्र,
वालीक का सहोदर और कृष्ण का भाई । इसके रथ की ध्वजाएँहरिणांकित थीं । हपु० ४८.६३, ३१.६-७ तीर्थंकर नेमिनाथ से अपने को कृष्ण की मृत्यु का कारण जानकर यह जंगल में रहने लगा था । मपु० ७२.१८६, हपु० ६१.३० कृष्ण का मेरे द्वारा मरण न हो एतदर्थ इसने बारह वर्ष जंगल में बिताये थे । द्वारिका के जलने पर कृष्ण और बलदेव द्वारिका छोड़ दक्षिण दिशा की ओर चले आये थे । पु० ६१.९० घूमते हुए ये उस वन में जा पहुंचे जहाँ यह विद्यमान
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