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१. पूजाफलम् ८
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तत्सखीभ्योऽवधार्य कोपेन चक्री पृष्ठे लग्नोऽहं तेन युद्धवान् । स मे विद्यां छेदयित्वा तां नोतवानहं भूमिगोचरो भूत्वा त्रास्थाम् । द्वादशवर्षानन्तरं मे एतन्मन्त्रजपने पुनर्विद्याः सेत्स्यन्तीति उपदेशोऽस्ति । द्विर्जपनेऽपि न सिद्धा इत्युद्विग्नो गृहं गन्तुमिच्छामीति । अभयकुमारोऽवदन्तं 'मन्त्रं कथय । कथिते तस्मिन् यत्तत्राक्षरं न्यूनं तन्निक्षिप्य जपेत्युवाच । स जपन् ततः सिद्धविद्यस्तं नाम । ततस्तेन तत्सर्वमचीकरत् कुमारस्ततः सा गजकुमारनामानं पुत्रमसूत दिनान्तरैर्मेघकुमारमपीति सप्तपुत्र माताजनि चेलिनी सुखेनातिष्ठत् ।
एकदा ऋषिनवेदन विज्ञप्तो राजा देव, श्रीवर्धमानस्वामिसमवसरणं विपुलाचले - स्थादिति । सकलजनेन सह पूजयितुमियाय, पूजयित्वा तद्विभूत्यातिशयवलोकनादधिक'विशुद्धया क्षायिक सद्दष्टिर्बभूव तीर्थकरत्वं च विचार्य ।
तदनु गौतमं पप्रच्छाभय कुमारपुण्यातिशयहेतुं गजकुमारस्य च । स ग्राह-वेणात टाकपुरे द्विजो रुद्रदत्तो गङ्गायां गच्छन् एकस्मिन् ग्रामे रात्रौ वसतिकायां श्रावकान्तिके भोजनं
लिए मैं उसको लेकर इस दक्षिण भरत क्षेत्रके ऊपरसे जा रहा था। उधर वह विद्याधरोंका स्वामी पुत्रीकी सखियों से यह ज्ञात करके क्रोधसे मेरे पीछे लग गया। तब मुझे उसके साथ युद्ध करना पड़ा । वह मेरी विद्याको नष्ट करके अपनी पुत्रीको ले गया । विद्याके नष्ट होनेसे मैं भूमिगोचरी होकर आकाशमार्गसे जाने में असमर्थ हो गया । तबसे मैं यहाँपर स्थित हूँ । बारह वर्ष के पश्चात् इस मन्त्रके जपनेपर मेरी विद्याएँ फिरसे सिद्ध हो जायेंगी, यह उपदेश है । परन्तु दो बार जपनेपर भी वे विद्याएँ सिद्ध नहीं हुई हैं। इससे क्षुब्ध होकर मैं घर जानेकी इच्छा कर रहा हूँ । इस वृत्तान्तको सुनकर अभयकुमारने उससे उस मन्त्रको बतलानेके लिए कहा । तब उसने वह मन्त्र अभय कुमार के लिए बतला दिया । उस मन्त्रमें जो कम अक्षर था उसको रखकर अभयकुमारने उसे फिरसे जपने के लिए कहा । तदनुसार उसके फिरसे जपनेपर पवनवेगकी वे सब विद्याएँ सिद्ध हो गई । इस प्रकार विद्याओंके सिद्ध हो जानेपर पवनवेगने अभयकुमारको प्रणाम किया । तत्पश्चात् अभयकुमारने पवनवेगकी सहायता से वह सब ( चेलिनी के दोहला की पूर्ति ) किया । इसके बाद चेलिनीने गजकुमार नामक पुत्रको उत्पन्न किया । फिर उसने कुछ दिनोंके पश्चात् मेघकुमार नामक पुत्रको भी जन्म दिया। इस प्रकार चेलिनी सात पुत्रों की माता होकर सुखपूर्वक स्थित हुई । एक समय ऋषिनिवेदकने आकर राजासे निवेदन किया कि हे देव ! विपुलाचलके ऊपर श्री वर्धमान स्वामीका समवसरण स्थित हुआ है। तब श्रेणिक समस्त जनके साथ वर्धमान जिनेन्द्रकी पूजा करने के लिए वहाँ गया और उनकी पूजा करके तथा अलौकिक विभूतिको देख करके अतिशय दर्शनविशुद्धिके होनेसे वह क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो गया । उस समय उसने तीर्थंकर प्रकृतिको भी संचित कर लिया ।
पश्चात् श्रेणिकने अभयकुमार और गजकुमारके अतिशय पुण्यके विषयमें गौतम गणधर से प्रश्न किया । उन्होंने उत्तरमें कहा कि वेणातटाकपुरमें रुद्रदत्त नामका एक ब्राह्मण था । वह गंगा जाते हुए रात्रिमें किसी एक गाँव ( उज्जयिनी ) के भीतर वसतिकामें ठहर गया । उसने वहाँ श्रावक ( अर्हद्दास ) के पास भोजनकी याचना की । तब श्रावकने कहा कि रात्रिमें भोजन
१. फत्रास्य । २. फ कथितेति विस्मिन्त तत्राक्षरं व कथिते तस्मिन् यत्तदक्षरं । ३. फ स चायां जपीत्, ब जंजपीति । ४. फ विद्यास्तं । ५. प नमाम । ६. श ० मचीकरन् । ७. फ०सुखेनावतिष्ठन् ।
८. प श विवाय, फ चियाय ।
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