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१. पूजाफलम् ८
५३ तण्डुलान् खण्डयन्ती स्थिता। नकुलो वालस्याभिमुखमागच्छन्तमहिं विलोक्याचखण्ड । तद्रक्तलिप्तं स्वमुखं तस्या श्रदर्शयेत् । सा 'अनेन पुत्रो हतः' इति मत्वा तं मुशलेन व्याजघानेति । किमविचारितं तस्याः कर्तुमुचितम् । सोऽवोचत् 'न' श्रेष्ठी कथयति-कश्चिद् वृद्धो ब्राह्मणो वेणुयष्टौ स्वर्ण निक्षिप्य गङ्गायां चलितः । केनचिद् बटुकेन यष्टिर्लक्षिता । तदनु सह चचाल । कुम्भकारशालायां सुषुपतुः । प्रातः कियदन्तरं गत्वा बटुकोऽब्रवीददत्ता तृणशलाका मस्तके लग्ना आयात्पामजनिष्ट । तत्रैव निक्षिप्य आगमिष्यामि इति व्यावृतो वृद्ध एकस्मिन् ग्रामे यजमानगृहे स्वयं बुभुजे, तस्य च स्थलं चकार । एकस्मिन् मठे तस्थौ। रात्रावागतो बटुको भोक्तुं प्रस्थापितः। कुक्कराचं भविष्यन्तीति न याति । स तन्निवारणार्थयष्टि ददौ । स चादाय जगामेति । कि तस्येत्थमुचितम् । यतिरभणत् 'न । शृणु मत्कथाम् । कौशाम्ब्यां राजा गन्धर्वानीकस्तत्सुवर्णकारोऽङ्गारदेवनामा। स चैकदा राजकीयं मणिपद्मरागं" संस्कारार्थ स्वगृहमानिनाय । तदा कश्चिन्मुनिश्चर्याथमाययो । स स्थापयामास लगी। उस समय एक सर्प बालककी ओर आ रहा था। नेवलने सर्पको बालककी ओर आता हुआ देखकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । ज्योंही कपिलाने नेवलेके मुखको सर्पके रक्तसे सना हुआ देखा त्योंही उसने यह सोचकर कि इसने बालकको खा लिया है, मूसलके आघातसे उसे मार डाला । क्या बिना विचारे ही कपिलाको निरपराध नेवलेका मार डालना उचित था ? सेठने कहा कि नहीं ॥८॥
सेठ बोला- कोई एक बूढ़ा ब्राह्मण बाँसकी लाठीके भीतर सुवर्णको रखकर गंगा नदीकी ओर जा रहा था। किसी बालकने उसे लाठीमें सुवर्ण रखते हुए देख लिया । तत्पश्चात् वह भी उसके साथ चलने लगा और वे दोनों रातमें किसी कुम्हारकी शालामें सो गये और प्रातःकालके होनेपर वहाँ से आगे चल दिये । कुछ मार्ग चलनेके पश्चात् बालक बोला कि मेरे माथेपर चिपटकर एक बिना दी हुई तृणकी शलाई चली आयी है । यह तो चोरीका पाप हुआ है । इसलिए मैं उसे वहींपर रखकर वापिस आता है। ऐसा कहकर वह वापिस चला गया। तब वृद्ध ब्राह्मणने किसी गाँवमें पहुँचकर एक यजमानके घरपर स्वयं भोजन किया और उक्त बालकके लिए भी भोजनका स्थल कर दिया- उसे भी भोजन करा देनेके लिए कह दिया। फिर वह एक मठमें ठहर गया । जब रातमें वह बालक वापिस आया तब ब्राह्मणने उसे उक्त यजमानके घरपर भोजनके लिए भेजना चाहा । परन्तु वह 'मार्गमें कुत्ते होंगे' यह कहकर वहाँ जानेको तैयार नहीं हुआ। तब ब्राह्मणने कुत्तोंसे आत्मरक्षा करनेके लिए उसे लाठी दे दी। उसे लेकर वह चल दिया। क्या उस बालकको ऐसा करना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं ॥१॥
तत्पश्चात् मुनि बोले कि मेरी कथाको सुनो- कौशाम्बी नगरीमें गन्धर्वानीक नामका राजा राज्य करता था । उसके यहाँ एक अंगार देव नामका सुनार था । वह एक दिन राजाके पाससे पद्मराग मणिको शुद्ध करनेके लिए अपने घरपर ले आया। उस समय कोई एक मुनिचर्याके
१. फ मागच्छन्नहिं विलोक्याचरखंडन् ब आगच्छन्तमहिं विलोक्य चखंडन् । २. फ ब तस्यादर्शन् । ३. फ व्याघातेति । ४. फ स्वस्य वदंतोऽहं ब्रुवे । बसोवदीन् ।।८।। अहं ब्रुवे । ५. श गंगाया। ६. फ शुषपतुः । ७. फ. आयातपाप, बलग्नायात्पाप । ८. फ तत्कुक्कूराश्च,श कुरूराश्च। ९. ब तिष्ठतीति । १०.फ यामि । ११. शतान्निवारणार्थं । १२. फ यतिरभण, ब यतिरभणत ॥९॥ १२. श यतिः कथयति ॥ शृणु ब श्रृणु । कौमत्कथं को। १४. फ 'राजा' नास्ति । १५. प मणी पद्मराग-फ मणि पद्मदाग-ब मणि
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